श्री बलभद्र भगवान

मनोज कुमार शाह
तिनसुकिया, असम
उद्देश्य

- मनोज कुमार शाह, तिनसुकिया, असम

कलवार समाज के विभिन्न कार्यक्रमों के दौरान यह महसूस हुआ कि भगवान बलभद्र के विषय में समाज के अधिकांश लोगों को विशेष जानकारी नहीं है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस पुस्तक को प्रकाशित करने का संकल्प हुआ, जो भगवान बलभद्र के आशीर्वाद से पूर्ण हुआ है।

भगवान बलभद्र के संदर्भ में विभिन्न पुराणों एवं पुस्तकों के अध्ययन से जानकारी एकत्रित करके यह पुस्तक सार-रूप में समाज को जानकारी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से प्रकाशित की गई है। इस पुस्तक में उल्लेखित तथ्यों की सच्चाई के विषय में प्रकाशक कोई दावा नहीं पेश करते।

भगवान बलभद्र एक जागृत देवता हैं, जिनके विषय में समाज को या यूं कहा जाए आज के मानव को बहुत जानकारी नहीं है। लोग भगवान बलभद्र के जीवन रहस्य के विषय में जानना तो चाहते हैं, परंतु क्रमबद्ध साहित्य के अभाव में जानकारी नहीं हो पाती है।

आशा है यह पुस्तक भगवान बलभद्र के जीवन पर प्रकाश डालने में सफल रहेगी।

मनोज कुमार शाह, तिनसुकिया, असम
द्वारा डिजिटल प्रकाशित

जन्म कथा

बलभद्र जी के अवतार का समय काल

हिन्दू काल गणना अनुसार तृतीय युग अर्थात द्वापर यूग का अंतिम चरण था जब बलभद्र भगवान और श्री कृष्ण भगवान का जन्म पृथ्वी पर हुआ । इन दोनों भगवान की लीला के बाद ही कलियूग का प्रथम चरण आरम्भ हुआ ।

मथुरा नगर पर ‘आहुक’ के बाद ‘उग्रसेन’ और उनके बाद ‘कंस’ ने राज किया था । कंस दुराचारी था पर उसको अपनी चचेरी बहन ‘देवकी’ से बहुत ही लगाव और प्रेम था । उसी मथुरा नगर में ‘वशुदेव जी’ भी सपरिवार का निवास करते थे, ‘वशुदेव जी’ राजा शूरसेन के पुत्र थे । राजकुमार वासुदेव की धर्मनिष्ठा और सज्जनता पुरे नगर में चर्चा चर्चित थी, उनके सतगुण से प्रभावित हो राज परिवार ने उनका विवाह राजा देवक के पुत्री ‘देवकी जी’ से धूम धाम से सम्पन्न कराया । विवाह के उपरांत कंस सारथी बन अपनी प्यारी बहन देवकी और वासुदेव को रथ से उनके घर पहुंचाने तरफ निकल पड़ा । वे सभी अभी रस्ते में ही थे कि आकाशवाणी हुई – “अरे मुर्ख कंस तू जिसका रथ चला कर ससुराल ले जा रहा है उसी की आठवीं संतान तेरा वध करेगी” इन भविष्यवाणी को सुन कर कंस अत्यंत क्रोधित हुआ और देवकी का वध करने के लिए उतारू हो गया । बासुदेव जी और देवकी के अनुनय विनय और प्रतिश्रुति पर उनकी जान इस शर्त पर बची की वे अपनी सभी संतान के उत्पन्न होते ही कंस को सौप देंगें और इस तरह दुराचारी कंस ने बासुदेव जी को और अपनी बहन की ह्त्या नहीं कर उन्हें एकसाथ कारगर में डाल दिया ।

समय बीतने के साथ बंदीगृह में देवकी ने अपने संतान को जन्म दिया और इसकी सुचना कंस को जैसे ही मिलती वह कारगर में आ कर संतानों को मार देता था ! इसी क्रम में दुष्ट कंस ने बासुदेव और देवकी के छे संतानों का वध कर दिया । देवकी माता के गर्भ में आने वाले 7वीं संतान पुत्र के रूप में बलराम जी थे । वे विष्णु के अंश अनंत जी (शेष नाग) के अवतार थे । श्री हरि ने योगमाया ने अपने माया द्वारा देवकी के इस गर्भ को गोकुल निवाशी वासुदेव जी की पहली पत्नी रोहिणी जी के गर्भ में स्थापित कर दिया । अतः वे संकर्षण भी कहलाये । मथुरा के बंदीगृह में देवकी के गर्भ लुप्त हो जाने पर सभी ने बहुत ही आश्चर्य प्रकट किया । उधर ब्रज में पाँच ही दिन पश्चात गौर और सुन्दर वर्ण के बलराम जी का जन्म हुआ । काशी के चन्द्रपंचांग तथा अग्नि पुराण गर्ग संहिता अनुसार : भाद्रपद कृष्ण पक्ष तृतीय तिथि, स्वाति नक्षत्र, दिन बुधबार, लग्न तुला, तथा पाँच ग्रह उच्च होकर स्थित थे ।

आठवें गर्भ में कृष्ण थे। भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि की घनघोर अंधेरी आधी रात को रोहिणी नक्षत्र में मथुरा के कारागार में वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया । जिस कारागार में देवकी-वसुदेव कैद थे, उसमें अचानक प्रकाश हुआ और भगवान विष्णु प्रकट हुए। दोनों भगवान के चरणों में गिर पड़े। तब भगवान ने उनसे कहा- "अब मैं पुनः नवजात शिशु का रूप धारण कर लेता हूं। तुम मुझे इसी समय अपने मित्र नंदजी के घर वृंदावन में ले चलो और माता यशोदा के यहां एक कन्या जन्मी है, उसे ले कर आओ और कंस के हवाले कर दो । उसी समय जागते हुए सभी पहरेदार सो गए, कारागृह के फाटक अपने आप खुल गए और उफनती अथाह यमुना ने बासुदेव जी को मार्ग दे दिया।" वहां पहुँच कर नवजात शिशु को यशोदा के सैया पर सुला दिए और कन्या को लेकर मथुरा आ गए। कारागृह के फाटक पूर्ववत बंद हो गए। कंस को जब सूचना मिली कि वसुदेव-देवकी को बच्चा पैदा हुआ है। वह बंदीगृह में आ धमका और देवकी से नवजात कन्या को छीनकर पृथ्वी पर पटक देना चाहा, परंतु वह कन्या उसके हांथों से फिसल कर आकाश में उड़ गई और वहां से कहा- "अरे मूर्ख कंस, मुझे मारने से क्या होगा ? तुझे मारनेवाला तो वृंदावन में जा पहुंचा है। वह जल्द ही तुझे तेरे सारे पापों का दंड अवश्य देगा।" इस तरह बलराम और श्री कृष्ण का जन्म हुआ ।

श्री बलभद्र जी का जन्म गर्ग संहिता के अनुसार :

श्री बलभद्र जी भगवान के जन्म तिथि के संबंध में कुछ भ्रांतियाँ हैं ।

कुछ स्थानों में: भाद्र कृष्ण षष्ठी को मनायी जाती है

जगन्नाथपुरी में: श्रावण शुक्ल 15

जनकपुर धाम में: भाद्र शुक्ल तृतीया

अधिकांश स्थानों में: भाद्र शुक्ल षष्ठी को श्री बलभद्र जयंती मनायी जाती है

इन भ्रांतियाँ को दूर करने के लिए श्री बलभद्र जी भगवान के जन्म तिथि के सम्बंध में श्री गर्गाचार्य जी जो यदुकुल के आचार्य थे, ने श्री गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड के पंचांग अध्याय में निम्नलिखित श्लोक संख्या ८ से ११ तक दिया जा रहा है :

देवक्याः सुप्तमें गर्भे हर्ष शोकविवर्द्धने ।

ब्रजं प्रणीते रोहिण्या मनते योगमायया ।।

अहो गर्भः क विगत इत्यूचुर्माथुरा जनाः ।। – ८

हिंदी अर्थ :देवकी का सातवां गर्भ एक ही साथ हर्ष और शोक बढ़ानेवाला था। योगमाया ने उसे ब्रज में जाकर राहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया तब मथुरा के लोगों ने कहा-अहो ! देवकी का गर्भ कहाँ चला गया ? बड़े आश्चर्य की बात है ।

अथब्रजे पंचदिनेषु भाद्रेस्वातौ च षष्टया च सिते बुधे च ।

उच्चैग्रहैः पंचभिरा वृते च लग्ने तुलारूये दिनमध्यदेशे ।। -९

हिंदी अर्थ: उसके पाँच दिन बाद भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को स्वामी नक्षत्र और बुधवार से युक्त थी, मध्याह्न के समय, तुला लग्न में, जब पाँच ग्रह उच्च के होकर स्थित थे, ब्रज में वसुदेव पत्नी रोहिणी के गर्भ से अपने तेज के नन्द भवन को उद्भाषित करते हुए महात्मा बलराम जी प्रकट हुए।

सुरेषु वर्षत्यु च पुष्यवर्स धनेषु मुंचत्सु च वारिविंदून ।

वभूव देवकी वसुदेव पल्यां विभास यन्नंगुहं स्वमासा ।। -१०

उस समय मेघों ने जल विन्दु वर्षाए और देवताओं ने पुष्पों की वृष्टि की।

नदोऽपि कुर्वाज्छसुजात कर्म ददौ द्विजेभयो निभुत गवां च ।

गोपान्समाहूय सुगायकानां रावैमंहामंगल माततांन ।। -११

हिंदी अर्थ: नन्द जी शिशु का जातकर्म संस्कार करवाया । ब्राह्मणों को दस लाख गायें दान में दी, फिर गोपों को बुलाकर अच्छे-अच्छे गायकों के संगीत के साथ महामहोत्सव मनाया ।

बलराम जयंती क्यों मनाई जाती है

बलराम जयंती बलराम जी के जन्म तिथि पर मनाई जाती है ! इस दिन उनके प्रतिमा को नीलाम्बर वस्त्र पहनाये जाता है और उनके प्रिय अश्त्र हल और मुसल से सजाया जाता है । भारत के कई क्षेत्रों मैं इस पर्व को हल छठ या सष्टि भी कहा जाता है ।

कहीं कहीं इस दिन हल से जुती हुई किसी भी चीज़ को नहीं खाने की मान्यता है जैसे :- अनाज, सब्जिया, जो भी हल के जरिए खेतों में उगती है उसे नहीं खाया जाता है ! महिलाएं इस दिन फलहार खाकर अपना व्रत करती हैं ! इस दिन गाय के दूध का और दूध से बनी चीजों का भी प्रयोग नहीं किया जाता है ! बलराम जयंती भारत के हर राज्यों में अलग - अलग तरीकों से भी मनाई जाती है ! गुजरात में इस दिन को हलष्ठी, बल्देव छठ के नाम से मनाई जाती है ! बलराम जयंती का क्या महत्व है :- इस दिन को भगवान बलराम जी जन्म दिन माना जाता है और व्रत रखा जता है मान्यता यह ही कि इस दिन व्रत रखने से स्वस्थ से सम्बधित बीमारी नही होती है ! भगवान बलराम को देवकी और वासुदेव की सातवीं संतान माना जाता है !

बलराम जयंती कथा :- एक बार भगवान बलराम (शेष नाग) किसी कारन से भगवान विष्णु से नाराज हो गए थे ! भगवान विष्णु के मानाने पर उन्होंने कहा “हे प्रभु मै हमेशा आप के चरणों में रह कर आपकी अनवरत सेवा करता रहता हूँ और कोई मेरे तरफ ध्यान नहीं देता । शेष नाग जी नाराजगी और बात सुनकर भगवान विष्णु जी बोले द्वापर युग में आप मेरे बड़े भाई के रूप में जाने जायेंगे ! आप बड़े रहेंगें और मैं छोटा रहूंगा । विष्णु जी का ये वरदान सुनकर भगवान शेष नाग बहुत प्रसन्न हो गए ! इस तरह भगवान शेष नाग जी को द्वापर युग में विष्णु जी (श्री कृष्ण) के बड़े भाई (बलराम) के रूप में जाना जाता है !

यह भी मान्यता है कि त्रेता युग में जहां शेषनाग ने भगवान हरि के छोटे भाई के रूप में जन्म लिया था, वहीं द्वापर युग में ये भगवान विष्णु के बड़े भाई बर्ने ।

नामकरण

बड़े भाई बलराम और उनके छोटे भाई श्री कृष्ण का नामकरण कैसे पूरा हुआ

गोकुल में माता यशोदा और पिता नंद जी के घर दोनों भाई बलराम तथा श्री कृष्ण का पालन पोषण हो रहा था। एक दिन वासुदेव जी की प्रार्थना पर यादवों के महातपस्वी पुरोहित गर्गाचार्य जी ब्रज पहुंचे। उन्हें देखकर वासुदेव जी अत्यंत प्रसन्न हुए। गुरु गर्गाचार्य जी का ब्रज में सम्मानपूर्वक आवभगत एवं स्वागत हुआ। वासुदेव जी उनसे अनुरोध किया कि वे उनके दोनों पुत्र का विधिवत नाम रख दें और नामकरण संस्कार पूरा कर दें । गर्गाचार्य जी ने नाम रखने में आने वाली अड़चन का संज्ञान बासुदेव जी को दिया और बताया कि वे क्योंकि वे यदुवंशियों के पुरोहित है अतः उनका नामकरण संस्कार करने से दोनों पुत्रों को कंस देवकी पुत्र मान लेगा और उन्हें मार डालने का प्रयत्न करेगा । यह अनुसंसा उन्होंने इस लिए जताई क्योकि योग माया द्वारा भविष्यवाणी भी की गई थी कि उसे बद्ध करने वाला अवतार इस संसार में आ चुका है दुष्ट कंस इसी बात से आशंकित भी था । इन सारी बातिन को सुन कर नंद जी के गर्गाचार्य जी से अनुरोध किया कि वे घर के अंदर ही बिना किसी को आमंत्रित किए और एकांत में दोनों बच्चों का नामकरण संस्कार पूरा कर दें, और इस तरह नामसंस्कार का अनुष्ठान एकांत में पूरा हुआ !

पहले पुत्र अर्थात बड़े पुत्र का नाम ‘राम’ रखा गया, और उन्होंने बताया कि यह पुत्र गुणों से सभी लोगों के मन को प्रसन्न करेगा, इसमें बल की बहुत ही अधिकता रहेगी । नाम राम और बलशाली होने के कारण इस बड़े लड़के का नाम “बलराम” होगा। इसे लोग बल भी कहेंगे यह यदुवंशियों की आपसी फूट मिटाकर सब यदुवंशियों के बीच एकता लाएगा । इसे लोग संकर्षण भी कहेंगे।

दूसरे लड़के अर्थात छोटे लड़के का नाम उसके कृष्ण वर्ण होने के के कारण कृष्ण रखा गया। नाम रखते समय यह भी गर्गाचार्य जी ने बताया कि यह पुत्र वासुदेव के नाम से भी जाना जाएगा। साथ ही साथ या भविष्यवाणी की गई कि यह छोटा और दूसरा पुत्र पूरा विश्व का कल्याण करेगा और आने वाली किसी भी विपत्तियों को दूर रखेगा।

प्रसंगवश यह उलेखनीय है कि बड़े भाई बलराम को शेषनाग का अवतार मना जाता है और छोटे भाई श्रीकृष्ण को विष्णु भगवान् का अवतार माना जता है।

बलराम जी को कई नामों से पुकारा जाता है !

बलराम जी के नाम :

  • माता रोहिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए अतः बलराम जी को “रौहिन्या” रोहिणीपुत्र कहा जाता है
  • बलराम जी मुसल और हल धारण करतें हैं इसी लिए उन्हें “सिरपानी” “हलधर”; “हलायुध” और मुसल धारक होने के कारन “मुसली” कहा जाता है ।
  • बलराम जी को देवकी माता के गर्भ से योगमाया द्वारा रोहिणी के गर्भ में लाया गया । अतः उनका एक नाम “संकर्षण” भी पड़ा ।
  • श्री कृष्ण उन्हें प्यार से “दाऊ” कह कर बुलाया करते थे ।
  • पुरोहित गर्गाचार्य जी ने इनका नाम कारण “राम” के नाम से किया, और कहा की इस लड़के को बहुत ही बल होगा, बल श्रेष्ठ होगा, अतः उन्हें “बलराम” के नाम से भी जाना जाता है ।
  • अत्यधिक और श्रेष्ठ बल तथा सौम्य होने कारण उन्हें “बलभद्र” कहा जाता है।
  • “रेवतीरमण” तथा “रेवितीताहारथ” रेवती उनकी पत्नी थीं उन्ही के नाम था पर ये नाम हुए ।
  • धैर्य और सहनशीलता के स्वामी माने जाने के कारण उन्हें “धृतनाथ ” कहा जाता है ।
  • “फणीश्वर” और “फणी” सेसनाग के अवतार माने जाने के कारन !
  • “रामभद्र” और “राम” भी कहा जाता है क्योंकि वे सर्वोच्च आनंद और शांति देने वाले हैं ।
श्री बलराम स्तोत्र

श्रीगर्ग संहिता में श्री बलभद्र खण्‍ड के अन्‍तर्गत श्री प्राड्विपाक मुनि और दुर्योधन के संवाद में ‘श्रीबलराम स्‍तोत्र’ नामक ग्‍यारहवां अध्‍याय

दुर्योधन उवाच-

स्तोत्र श्रीबलदेवस्य प्राड्विपाक महामुने ।

वद मां कृपया साक्षात् सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।। १

दुर्योधन ने कहा-महामुनि प्राड्विपाक जी ! अब भगवान बलराम जी का वह स्तोत्र, जो साक्षात समस्त सिद्धियों को प्रदान करनेवाला कृपापूर्वक मुझसे कहिये ।

प्राड्विपाक उवाच-

स्वराजं तु रामस्य वेदव्यास कृत शुभम् ।

सर्वसिद्धिप्रदं राजन् श्रृणु कैवल्यदं नृणाम् ।। २

प्राड्विपाक मुनि बोले - राजन् ! बलराम जी का स्तोत्र श्रीवेदव्यासजी के द्वारा प्रणीत हैं, यह मनुष्यों को समस्त सिद्धियां और मोक्ष भी प्रदान करने वाला है । इस शुभ स्तवराज को तुम सुनो ।

देवादिदेव भगवान् कामपाल नमोऽस्तु ते ।

नमोऽनन्ताय शेषाय साक्षाद्रामाय ते नमः ।। ३

देवादिदेव ! भगवान ! कामपाल ! आपको नमस्कार ! हे बलराम जी ! आप साक्षात अनन्त और शेषजी हैं, आपको नमस्कार ।

धराधराय पूर्णाय स्वाधाम्ने सीरपाणये ।

सहस्रशिरसे नित्यं नमः संकर्षणाय ते ।। ४

आप पृथ्वी को धारण करनेवाले, परिपूर्ण ब्रह्म, स्वयं प्रकाशमान, हाथ में हल लिये हुए, हजार मस्तकों से युक्त संकर्षण हैं । आपको नित्य मेरे नमस्कार हैं ।

रेवतोरमण त्वं वै बलदेवाऽच्युताग्रज ।

हलायुध प्रलम्बध्न पाहि मां पुरुषोत्तम ।। ५

पुरुष श्रेष्ठ बलराम जी ! आप भगवान अच्युत के बड़े भाई हैं, रेवती के स्वामी हैं, हल आपका शस्त्र है और आप प्रलम्बासुर का संहार करनेवाले हैं । आप मेरी रक्षा करें ।

बलाय बलभद्राय तालांकाय तमो नमः ।

नीलाम्बर गौराई रौहिणेयाय ते नमः ।। ६

भगवान बलराम, बलभद्र और तालध्वज को मेरा बार-बार नमस्कार है । आप गौरवर्ण हैं, नीलाम्बर धारण किये हुए हैं, रोहिणी के कुमार है; आपको नमस्कार !

धनुकारिमुष्टिकारिः कूटारिर्बल्वलान्तक ।

रूकम्यरिः कूपकर्णारिः कुम्माण्डारिस्त्वमेव हि ।। ७

आप धेनुकासुर, मुष्टिकासुर, कूट, बल्कल, रूक्मी, कूपकर्ण, और कुम्भाण्ड के शत्रु और उनके संहारक हैं ।

कालिन्दी भेदनोऽसि त्वं हस्तिनापुर कृषकः ।

द्विविदारियदिवेन्द्रो ब्रजमण्डलमण्डनः ।। ८

आप कालिन्दी का भेदन करते वाले हस्तिनापुर का आकर्षण करने वाले, द्विविद वानर का वध करनेवाले. यादवों के राजा और ब्रज मंडल को सुशोभित करनेवाले हैं

कंस भ्रातृ प्रहन्ताऽसि तीर्थयात्रा कर प्रभु ।

दुर्धाधनगुरुः साक्षात् पाहि पाहि प्रभो त्वतः ।। ९

आपने कंस के भाईयों का वध किया है, आप सबके स्वामी और में भ्रमण करनेवाले हैं, आप दुर्योधन का साक्षात गुरू हैं । प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए ।

जय जयाच्युत देव परात्पर स्वयमनन्त दिगन्तगतश्रुत ।

रमुनीन्द्रफणीन्द्रवराय ते मुसलिने बलिने हलिने नमः ।। १०

हे अच्युत ! आपकी जय हो, जय हो । हे परात्पर देव ! आप स्वयं अनन्त एवं दिशा विदिशाओं में कीर्तित हैं । आप देवता, मुनि और सर्पों के स्वामियों में श्रेष्ठ हैं । हल तथा मुसल को धारण करने वाले भगवान बलराम जी को मेरा नमस्कार है ।

यः पठेत् सत्ततं स्तवनं नरः स तु हरेः परमं पदमाव्रजेत् ।

जगति सर्वबलं त्वरिमर्दनं भवति तस्य धनं स्वजनं धनम् ।। ११

जो मनुष्य इस स्तवराज का निरंतर पाठ करता है, वह श्रीहरि के परमपद को प्राप्त होता है। जगत में वह शत्रु का शमन करने वाले सम्पूर्ण बलोंसे सम्पन्न हो जाता है। और उसे धन तथा स्वजन प्रचुररूप से प्राप्त रहते हैं ।

इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्री बलभद्र खण्‍ड ‘श्रीबलराम स्‍तोत्र’ नामक ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ।

पूजन विधि

भगवान बलराम जी का स्वरुप:

बलराम भगवन का पूजन उनके मूर्ति स्वरुप या फोटो स्वरुप में की जाती है । किसी भी स्वरुप में चार चीजों को मुख्यता से दर्शाया जाता है । सभी देव श्रृंगार के साथ –

  1. उनके नीले रंग के वश्त्र
  2. उनके मस्तक के ऊपर राजछत्र शेष नाग
  3. उनके हाँथों में हल, मूसल, गदा
  4. उनकी दो नंदनी वैल स्वरुप सुसज्जित होते हैं

कलवार समाज के ब्याहुत उपवर्ग के लोग विवाह के समय अपने वैवाहिक रश्म को मानाने के लिए कुम्हार से एक मूर्ति गढ़वातें है जो हल, मूसल, धुनष-वाण आदि अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित यज्ञोपवीत युक्त और मस्तक के ऊपर शेष नाग राजछत्र धारण की हुई होती है । मूर्ति में कलेवर (जौ) खोंसा रहता हैं । शायद ये जौ लौहमय कवच के ऊपर निकले हुए नोकदार कांटों का स्मरण कराते हैं।

जगरनाथ पूरी मंदिर में बलभद्र के साथ छोटे भाई श्रीकृष्ण, बहन शुभद्रा की मूर्ति है | प्रचलित कहानी अनुसार इसे भगवन विश्वकर्मा जी ने बनाया था | उनकी बातों को उस समय के राजा ने ना मानकर गलती की थी | आधे बने हुए मूर्तियों को राजा ने मना करने पर भी चोरी से देख लिया इसी गलती के कारन सभी मुर्तिया आधी ही बन पाई | इसी अर्ध स्वरुप में जगरनाथ पूरी में पूजा भी होती है | बलभद्र जी गौर वर्ण होने के कारन उनकी मूर्ति सफेत रंग से रंगा जाता है|

बलराम पूजन विधि

वैसे तो सभी के घरों में बलराम जी का पूजन किया जाता है । खास मौकों की बात करें तो “जन्म जयंती”, जगरनाथ पूरी रथ यात्रा, और कलवार के ब्याहुत वर्ग के विवाह में पूजन होता है ।

  • आज के प्रचलित संकल्प तथा पूजन विधि: आज कल पंडित जी द्वारा गणेश पूजन, संकल्प, तथा भोग लगा कर बलभद्र पूजन किया जाता है । भोग रूपी प्रसाद में फल, मिठाई, दाल चावल कढ़ी बड़ी, पापड़, फुलौरा इत्यादी का भोग लगता है !
  • फोटो या मूर्ति बना कर पूजा की जाती है
  • बलराम भगवान् के सभी मंदिरों में पूजन विशेष भोग द्वारा किया जाता है ।
सहस्रनाम

गर्ग संहिता बलभद्र खण्‍ड‎: अध्याय 13 बलभद्र सहस्रनाम

दुर्योधन ने कहा- महामुने प्राडविपाकजी ! भगवान बलभद्र के सहस्रनाम को, जो देवताओं के लिये भी गोपनीय अज्ञात हैं, मुझ से कहिये। प्राडविपाक मुनि बोले- साधु, साधु ! महाराज ! तुम्‍हारा यश सर्वथा निर्मल है। तुमने जिसके लिये प्रश्न किया है, वह परम देवदुर्लभ सहस्रनाम गर्गजी के द्वारा कथित है। उन दिव्‍य सहस्रनाम का वर्णन मैं तुम्‍हारे सामने कर रहा हूँ। गर्गाचार्यजी ने यमुनाजी के मंगलमय तट पर यह सहस्रनाम गोपियों को प्रदान किया था।

विनियोग :-

‘ॐ अस्‍य श्री बलभद्रसहस्रनामस्‍तोत्रमन्‍त्रस्‍य गर्गाचार्यऋषि:, अनुष्‍टुप् छन्‍द:, संकर्षण: परमात्‍मा देवता, बलभद्र इति बीजम्, रेवतीरमण इति शक्ति:, अनन्‍त इति कीलकम्, बलभद्रप्रीत्‍यर्थे जपे विनियोग:।

इस बलभद्र सहस्रनाम स्‍तोत्ररुपी मन्‍त्र के गर्गाचार्य ऋषि हैं, अनुष्‍टुप् छन्‍द है, परमात्‍मा संकर्षण देवता है, बलभद्र बीज है, श्री बलभद्र की प्रीति के लिये इसका विनियोग है।

इसको पढ़कर सहस्र नाम पाठ के लिये विनियोग का जल छोड़ दे। तत्‍पश्चात् इस प्रकार ध्‍यान करे

ध्‍यान :-

स्‍फुरदमलकिरींट
किकिंणीक्कड़णार्हं चलदलककपोलं कुण्‍डलश्रीमुखाब्‍जम्।

तुहिनगिरिमनोज्ञं
नीलमेघाम्‍बराढयं हलमुसलविशांल कामपालं समीडे।।

जिनका निर्मल किरीट दमक रहा है, जो करधनी तथा कंकणों से अलंकृत हैं, चंचल अलकावली से जिनके कपोल सुशोभित हैं, जिनका मुखकमल कुण्‍डलों से देदीप्‍यमान है, जो हिमाचल गिरि के समान मनोहर उज्‍ज्‍वल हैं तथा नीलाम्‍बर धारण किये हुए हैं। विशाल हल-मुसलधारण करने वाले उन भगवान कामपाल बलभद्रजी का मैं स्‍तवन करता हूँ।

बलदाऊ जी के 1000 नाम मन चित शांत कर ध्यान से इन नामों का जाप करें )

1.ॐ बलभद्र 2. रामभद्र 3. राम 4. संकर्षण 5. अच्‍युत 6. रेवतीरमण 7. देव 8. कामपाल 9. हलायुध 10. नीलाम्‍बर 11. श्वेतवर्ण 12. बलदेव 13. अच्‍युताग्रज 14. प्रलम्‍बघ्न 15. महावीर 16. रौहिणेय 17. प्रतापवान 18. तालाङ्क 19. मुसली 20. हली 21. हरि 22. यदुवर 23. बली 24. सीरपाणि 25. पद्मपाणि 26. लगुडी 27. वेणुवादन 28. कालिन्‍दीभेदन 29. वीर 30. बल 31. प्रबल 32. ऊर्ध्‍वग 33. वासुदेवकला 34. अनन्‍त 35. सहस्र वदन 36. स्‍वराट 37. वसु 38. वसुमती 39. भर्ता 40. वासुदेव 41. वसूत्तम 42. यदूत्तम 43. यादवेन्‍द्र 44. माधव 45. वृष्णिवल्‍लभ 46. द्वारकेश 47. माथुरेश 48. दानी 49. मानी 50. महामना 51. पूर्ण 52. पुराण 53. पुरुष 54. परेश 55. परमेश्‍वर 56. परिपूर्णतम 57. साक्षात परम 58. पुरुषोत्तम 59. अनन्‍त 60. शाश्वत 61. शेष 62. भगवान 63. प्रकृते:पर 64. जीवात्‍मा 65. परमात्‍मा 66. अन्‍तरात्‍मा 67. ध्रुव 68. अव्‍यय 69. चतुर्व्‍यूह 70. चतुर्वेद 71. चतुर्मूति 72. चतुष्‍पद 73. प्रधान 74. प्रकृति 75. साक्षी 76. संघात 77. संघवान् 78. सखी 79. महामना 80. बुद्धि सख 81. चेत 82. अहंकार 83. आवृत 84. इन्द्रियेश 85. देवता 86. आत्‍मा 87. ज्ञान 88. कर्म 89. शर्म 90. अद्वितीय 91. द्वितीय 92. निराकार 93. निरञ्जन 94. विराट् 95. सम्राट् 96. महौघ 97. आधार 98. स्‍थास्‍त्रु, 99. चरिष्‍णुमान् 100. फणीन्‍द्र 101. फणिराज 102. सहस्र फणमण्डित 103. फणीश्वर 104. फणी 105. स्‍फुर्ति 106. फूत्‍कारी 107. चीत्‍कार 108. प्रभु 109. मणिहार 110. मणिधर 111. वितली 112. सुतली 113. तली 114. अतली 115. सुतलेश 116. पाताल 117. तलातल 118. रसातल 119. भोगितल 120. स्‍फूरद्वन्‍त 121. महातल 122. वासुकि 123. शङ्खचूडाभ 124. देवदत्त 125. धनंजय 126. कम्‍बलाश्व 127. वेगतर 128. धृतराष्‍ट 129. महाभुज 130. वारुणीमदमत्ताङ्ग 131. मदघूर्णित लोचन 132. पद्माक्ष 133. पद्ममाली 134. वनमाली 135. मधुश्रवा 136. कोटिकंदर्पलावण्‍य 137. नागकन्‍या समर्चित 138. नूपुरी 139. कटिसूत्री 140. कटकी 141. कनकाङ्गदी 142. मुकुटी 143. कुण्‍डली 144. दण्‍डी 145.शिखण्‍डी 146. खण्‍डमण्‍डली 147. कलि 148. कलिप्रिय 149. काल 150. निवातकवचेश्वर 151. सहारकृत 152. रुद्रवपु 153. कालाग्रि 154. प्रलय 155. लय 156. महाहि 157. पाणिनि 158. शास्‍त्रकार 159. भाष्‍य कार 160. पतञ्जलि 161. कात्‍यायन 162. फक्किकाभू 163. स्‍फोटायन 164. उरंगम 165. वैकुण्‍ठ 166. याज्ञिक 167. यज्ञ 168. वामन 169. हरिण 170. हरि 171. कृष्‍ण, 172. विष्‍णु 173. महा विष्‍णु 174. प्रभ विष्‍णु 175. विशेषवित् 176. हंस 177. योगेश्वर 178. कूर्म 179. वाराह 180. नारद 181. मुनि 182. सनक 183. कपिल 184. मत्‍स्‍य 185. कमठ 186. देवमंगल 187. दत्तात्रेय 188. पृथु 189. वृद्ध 190. ऋषभ 191. भार्गवोत्तम 192. धन्‍वन्तरि 193. नृसिंह 194. कल्कि 195. नारायण 196. नर कमलेश 197. रामचन्‍द्र 198. राघवेन्‍द्र 199. कोसलेन्‍द्र 200. रघूद्वह 201. काकुत्‍स्‍थ 202. करुणा सिन्‍धु 203. दाशरथि, त्राता 204. सर्वलक्षणा 205. शूर 206. दाशरथि 207. त्राता 208. कौसल्‍यानन्‍दवर्द्धन 209. सौमित्रि 210. भरत 211. धन्‍वी 212. शत्रुघ्र 213. शत्रुतापन 214. निषङ्गी 215. कवची 216. खडगी 217. शरी 218. ज्‍याहतकोष्‍ठक 219. बद्धगोधाङ्गुलित्राण 220. शम्‍भु–कोदण्‍डभज्जन 221. यज्ञत्राता 222. यज्ञ भर्ता 223. मारीचवध कारक 224. असुरारि 225. ताडकारि 226. विभीषणसहायकृत 227. पितृवाक्‍यकर 228. हर्षी 229. विराधारि 230. वनेचर 231. मुनि 232. मुनिप्रिय 233. चित्र-कूटारण्‍यनिवासकृत 234. कबन्‍धहा 235. दण्‍डकेश 236. राम 237. राजीवलोचन 238. मतङ्ग 239. वन संचारी 240. नेता 241. पच्चवटी पति 242. सुग्रीव 243. सुग्रीव सखा 244. हनुमत्‍प्रीतमानस 245. सेतुबन्‍ध 246. रावणारि 247. लङ्कादहनतत्‍पर 248. रावण्‍यरि 249. पुष्‍पकस्‍थ 250. जानकीविरहातुर 251. अयोध्‍याधिपति 252. श्रीमान् 253. लवणारि 254. सुरार्चित 255. सूर्यवंशी 256. चन्‍द्र वंशी 257. वंशीवाद्यविशारद 258. गोपति 259. गोप वृन्‍देश 260. गोप 261. गोपीशतावृत 262. गोकुलेश 263. गोप-पुत्र 264. गोपाल 265. गोगणाश्रय 266. पूतनारि 267. वकारि 268. तृणावर्त- निपातक 269. अघारि 270. धेनुकारि 271. प्रलम्‍बारि 272. व्रजेश्वर 273. अरिष्‍टहा 274. केशिशत्रु 275. व्‍योमासुरविनाशकृत 276. अग्निपान 277. दुग्‍धपान 278. वृन्‍दावनलता 279. आश्रित 280. यशोमतीसुत 281. भव्‍य 282. रोहिणीलालित 283. शिशु 284. रासमण्‍डल-मध्‍यस्‍थ 285. रासमण्‍डलमण्‍डन 286. गोपिकाशतयूथार्थी 287. शङ्खचूड-वधोद्यत 288. गोवर्धनसमुद्धर्ता 289. गोवर्धनसमुद्धर्ता 290. व्रज रक्षक 291. वृष भानुवर 292. नन्‍द 293. आनन्‍द 294. नन्‍दवर्द्धन 295. नन्‍दराजसुत 296. श्रीश 297. कंसारि 298. कालियान्‍तक 299. रजकारि 300. मुष्टिकारि 301. कंसकोदण्‍डभज्जन 302. चाणूरारि 303. कूट-हन्‍ता 304. शलारि 305. तोशलान्‍तक। 306. कंसभ्रातृनिहन्‍ता 307. मल्‍लयुद्ध-प्रवर्तक 308. गजहन्‍ता 309. कंसहन्‍ता 310. कालहन्‍ता 311. कलङ्गहा 312. मागधारि 313. यवनहा 314. पाण्‍डु-पुत्रसहायकृत 315. चतुर्भुज 316. श्‍यामलाङ्ग 317. सौम्‍य 318. औपगविप्रिय 319. युद्धभृत् 320. उद्धवसखा 321. मन्‍त्री 322. मन्‍त्रविशारद 323. वीरहा 324. वीरमथन 325. शङ्खधर 326. चक्रधर 327. गदाधर 328. रेवचित्ततीहर्ता 329. रेवतीहर्ष-वर्द्धन 330. रेवतीप्राणनाथ 231. रेवतीप्रिय-कारक 332. ज्‍योति 333. ज्‍योतिष्‍मीभर्ता 334. रैवताद्रिविहारकृत 335. धृतिनाथ 336. धनाध्‍यक्ष 337. दानाध्‍यक्ष 338. धनेश्वर 339. मैथिलार्चितपादापब्‍ज 340. मानद 341. भक्तवत्‍सल 342. दुर्योधन 343. गुर्वी 344. गदाशिक्षाकर 345. क्षमी 346. मुरारि 347. मदन 348. मन्‍द 349. अनिरुद्ध 350. धन्विनांवर 351. कल्‍पवृक्ष 352. कल्‍पवृक्षी 353. कल्‍पवृक्षवन-प्रभु 354. स्‍यमन्‍तकमणि 355. मान्‍य 356. गाण्‍डीवी 357. कौरवेश्वर 358. कूष्‍माण्‍ड–खण्‍डनकर 359. कूपकर्णप्रहारकृत 360. सेव्‍य 361. रेवतजामाता 362. मधुसेवित 363. माधवसेवित 364. बलिष्‍ठ 365. पुष्‍टसर्वागड़ 366. हष्‍ट 367. पुष्‍ट 368. प्रहर्षित 369. वाराणसीगत 370. क्रुद्ध 371. सर्व 372. पौण्‍ड्रकघातक 373. सुनन्‍दी 374. शिखरी 375. शिल्‍पी 376. द्विविदागड़-निषूदन 377. हस्तिनापुरसंकर्षी 378. रथी 379. कौरवपूजित 380. विश्वकर्मा 381. विश्वधर्मा 382. देवशर्मा 383. दयानिधि 384. महाराज 385. छत्रधर 386. महा-राजोपलक्षण 387. सिद्धगीत 388. सिद्धकथ 389. शुक्‍लचामरवीजित 390. ताराक्ष 391. कीरनास 392. बिम्‍बोष्‍ठ 393. सुस्मितच्‍छवि 394. करीन्‍द्र 395. करदोर्दण्‍ड 396. प्रचण्‍ड 397. मेघमण्‍डल 398. कपाटवक्षा 399. पीनांस 400. पद्मपाद 401. स्‍फुरद्द्युति 402. महाविभूति 403. भूतेश 404. बन्‍धमोक्षी 405. समीक्षण 406. चैद्यशत्रु 407. शत्रुसंध 408. दन्‍तवक्रनिषूदक 409. अजातशत्रु 410. पापघ्र 411. हरिदाससहायकृत 412. शालबाहु 413. शाल्‍वहन्‍ता 414. तीर्थयायी 415. जनेश्वर 416. नैमिषारण्‍य-यात्रार्थी 417. गोमतीतीरवासकृत 418. गण्‍डकीस्‍न्नानवान 419. स्‍त्रगवी 420. वैजयन्‍तीविराजित 421. अम्‍लान 422. पंकजधर 423. विपाशी 424. शोणसंप्‍लुत 425. प्रयागतीर्थराज 426. सरयू 427. सेतुबन्‍धन 428. गयाशिर 429. धनद 430. पौलस्‍त्‍य 431. पुलहाश्रम 432. गंगासागरसगांर्थी 433. सप्‍तगोदावरी-पति 434. वेणी 435. भीमरथी 436. गोदा 437. ताम्रपर्णी 438. वटोदका 439. कृतमाला 440. महापुण्‍या 441. कावेरी 442. पयस्विनी 443. प्रतीची 444. सुप्रभा 445. वेणी 446. त्रिवेणी 447. सरयूपमा 448. कृष्‍णा 449. पम्‍पा 450. नर्मदा 451. गंगा 452. भागीरथी 453. नदी 454. सिद्धाश्रम 455. प्रभास 456. बिन्‍दु 457. बिन्‍दुसरोवर 458. पुष्‍कर 459. सैन्‍धव 460. जम्‍बू 461. नरनारायणाश्रम 462. कुरुक्षेत्रपति 463. राम 464. जामदग्रय 465. महामुनि 466. इल्‍वलात्‍मजहन्‍ता 467. सुदामा 468. सौख्‍यदायक 469. विश्वजित 470. विश्वनाथ 471. त्रिलोकविजयी 472. जयी 473. वसन्‍तमालतीकर्षी 474. गद 475. गद्य 476. गदाग्रज 477. गुणार्णव 478. गुण-निधि 479. गुणपात्री 480. गुणाकर 481. रंगवल्‍ली 482. जलाकार 483. निर्गुण 484. सगुण 485. बृहत 486. दृष्‍ट 487. श्रुत 488. सगुण 489. बृहत् 490. भविष्‍यत 491. अल्‍पविग्रह 492. अनादि 493. आदि 494. आनन्‍द 495. प्रत्‍यग्‍धामा 496. निरन्‍तर 497. गुणातीत 498. सम 499. साम्‍य 500. समदृक 501. निर्विकल्‍पक। 502. गूढ 503. व्‍यूढ 504. गुण 505. गौण 506. गुणाभास 507. गुणावृत 508. नित्‍य 509. अक्षर 510. निर्विकार 511. क्षर 512. अजस्‍त्र सुख 513. अमृत 514. सर्वग 515. सर्ववित 516. सार्थ 517. सम बुद्धि 518. समप्रभ 519. अक्‍लेद्य 520. अच्‍छेद्य 521. आपूर्ण 522. अशोष्‍य 523. अदाह्म 524. अनिवर्तक 525. ब्रह्म 526. ब्रह्मधर 527. ब्रह्मा 528. ज्ञापक 529. व्‍यापक 530. कवि 231. अध्‍यात्‍म 532. अधिभूत 533. अधिदैव 534. स्‍वाश्रय 535. अश्रय 536. महावायु 537. महावीर 538. चेष्‍टा 539. रूपतनुस्थित 540. प्रेरक 541. बोधक 542. बोधी 543. त्रयोविंशतिकगण 544. अंशांश 545. नरावेश 546. अवतार 547. भूपरिस्थित 548. मह 549. जन 550. तप 551. सत्‍य 552. भू 553. भुव 554. स्‍व 555. नैमित्तिक 556. प्राकृतिक 557. आत्‍यन्तिकमय लय 558. सर्ग 559. विसर्ग 560. सर्गादि 561. निरोध 562. रोध 563. ऊतिमान 564. मन्‍वन्‍तरावतार 565. मनु 566. मनुसुत 567. अनघ 568. स्‍वयम्‍भू 569. शाम्‍भव 570. शंकु 571. स्‍वायम्‍भुवसहायकृत 572. सुरालय 573. देवगिरि 574. मेरु 575. हेम 576. अर्चित 577. गिरि 578. गिरीश 579. गणनाथ 580. गौरी 581. ईश 582. गिरिगहर 583. विन्‍ध्‍य 584. त्रिकूट 585. मैनाक 586. सुवेल 587. पारिभद्रक 588. पतंग 589. शिशिर 590. ककड़ 591. जारुधि 592. शैलसत्तम 593. कालञ्जर 594. बृहत्‍सानु 595. दरीभृत 596. नन्दिकेश्वर 597. संतान 598. तरुराज 599. मन्‍दार 600. पारिजातक 601. जयन्‍तकृत 602. जयन्‍ताङ्ग 603. जयन्‍ती 604. दिग् 605. जयाकुल 606. वृत्रहा 607. देवलोक 608. शशी 609. कुमुदबान्‍धव 610. नक्षत्रेश 611. सुधा 612. सिन्‍धु 613. मृग 614. पुष्‍य 615. पुनर्वसु 616. हस्‍त 617. अभिजित 618. श्रवण 619. वैधृ‍त 620. भास्‍करोदय 621. ऐन्‍द्र 622. साध्‍य 623. शुभ 624. शुक्‍ल 625. व्‍यतीपात 626. ध्रुव 627. सित 628. शिशुमार 629. देवमय 630. ब्रह्मलोक 631. विलक्षण 632. राम 633. वैकुण्‍ठनाथ 634. व्‍यापी 635. वैकुण्‍ठनायक 636. श्वेतद्वीप 637. अजितपद 638. लोकालोकचलाश्रित 639. भूमि 640. वैकुण्‍ठदेव 641. कोटिब्रह्माण्‍डकारक 642. असंख्‍यब्रह्माण्‍डपति 643. गोलोकेश 644. गवां पति 645. गोलोकधामधिषण 646. गोपिकाकण्‍ठभूषण 647. ह्रीधर 648. श्रीधर 649. लीलाधर 650. गिरिधर 651. धुरी 652. कुन्‍तधारी 653. त्रिशुली 654. बीभत्‍सी 655. घर्घरस्‍वन 656. शूलार्पितगज 657. सूच्‍यर्तितगज 658. गजचर्मधर 659. गजी 660. अन्‍त्रमाली 661. मुण्‍डमाली 662. व्‍याली 663. दण्‍डकमण्‍डलु 664. वेतालभृत् 665. भूतसंघ 666. कूष्‍माण्‍डगणसंवृत 667. प्रमथेश 668. पशुपति 669. मृडानी 670. ईश 671. मृड 672. वृष 673. कृतान्‍त-संघारि 674. कालसंघारि 675. कूट 676. कल्‍पान्‍तभैरव 677. षडानन 678. वीरभद्र 679. दक्षयज्ञ-विघातक 680. खर्पराशी 681. विषाशी 682. शक्तिहस्‍त 683. शिवा 684. अर्थद 685. पिनाकटंकारकर 686. चलज्‍झंकार-नूपुर 687. पण्डित 688. तर्क-विद्वान् 689. वेद पाठी 690. श्रुतीश्वर 691. वेदान्‍तकृत 692. सांख्‍यशास्‍त्री 693. मीमांसी 694. कणनामभाक् 695. काणादि 696. गोतम 697. वादी 698. वाद 699. नैयायिक 700. छन्‍द 701. वैशेषि‍क 702. धर्मशास्‍त्री 703. सर्व-शास्‍त्रर्थतत्त्वग 704. वैयाकरण कृत् 705. छन्‍द 706. वैयास 707. प्राकृति 708. वच 709. पाराशरीसंहितावित् 710. काव्‍यकृत् 711. नाटकप्रद 712. पौराणिक 713. स्‍मृति-कर 714. वैद्य 715. विद्याविशारद 716. अलंकार 717. लक्षणार्थ 718. व्‍यड्ग्‍यवित् 719. ध्‍वनिवित् 720. ध्‍वनि 721. वाक्‍यस्‍फोट 722. पदस्‍फोट 723. स्‍फोटवृति 724. रसार्थवित 725. श्रृगार 726. उज्‍जवल 727. स्‍वच्‍छ 728. अद्भुत 729. हास्‍य 730. भयानक 731. अश्वत्‍थ 732. यवभोजी 733. यवक्रीत 734. यवाशन 735. प्रह्लादरक्षक 336. स्निग्‍ध 737. ऐलवंशविवधर्नन 738. गताधि 739. अम्‍बरीषाङ्ग 740. विगाधि 741. गाधीनां वर 742. नानामणिसमाकीर्ण 743. नानारत्न विभूषण 744. नानापुष्‍पधर 745. पुष्‍पी 746. पुष्‍पधन्‍वा 747. प्रपुष्पित 748. नानाचन्‍दगन्‍धाढय 749. नानापुष्‍प–रसार्चित 750. नानावर्णमय 751. वर्ण 752. सदा नानावस्‍त्रधर 753. नानापद्माकर 754. कौशी 755. नानाकौशेयवेषधृक् 756. रत्नकम्‍बलधारी 757. धौतवस्‍त्रसमावृत 758. उत्तरीयधर 759. पूर्ण 760. घन-कञ्जुकवान 761. संघवान 762. पीतोष्‍णीष 763. सितोष्‍णीष 764. रक्तोष्‍णीष 765. दिगम्‍बर। 766. दिव्‍याङ्ग 767. दिव्‍यरचन 768. दिव्‍यालोकविलोकित 769. सर्वोपम 770. निरूपम 771. गोलोकांकीकृताकंन 772. कृतस्‍वोत्‍संगगोलोक 773. कुण्‍डली 774. भूत 775. आस्थित 776. माथुर 777. मथुरा 778. आदर्शी 779. चलत्‍खञ्जन-लोचन 780. दधिहर्ता 781. दुग्‍धहर 782. नवनीत-सिताशन 783. तक्रभुक 784. तक्रहारी 785. दधिचौर्यकृतश्रम 786. प्रभावतीबद्धकर 787. दामी 788. दामोदर 789. दमी 790. सिकताभूमिचारी 791. बालकेलि 792. व्रजार्भक 793. धूलिधूसरसर्वांग 794. काकपक्षधर 795. सुधी 796. मुक्तकेश 797. वत्‍सवृन्‍द 798. कालिन्‍दीकूलवीक्षण 799. जलकोलाहली 800. कूली 801. पंकजप्रागणलेपक 802. श्री वृन्‍दावनसंचारी 803. वंशीवटतटस्थित 804. महावननिवासी 805. लोहार्गलवनाधिप 806. साधु 807. प्रियतम 808. साध्‍य 809. साध्‍वीश 810. गतसाध्‍वस। 811. रंगनाथ 812. विट्ठलेश 813. मुक्तिनाथ 814. अघनाशक 815. सुकीर्ति 816. सुयशा 817. स्‍फीत 818. यशस्‍वी 819. रंगरज्जन 820. रागषट्क 821. रागपुत्र 822. रागिणी 823. रमणोत्‍सुक 824. दीपक 825. मेघमल्‍लार 826. श्री राग 827. मालकोशक 828. हिन्‍दोल 829. भैरवाख्‍य 830. स्‍वर-जातिस्‍मर 831. मृदु 832. ताल 833. मान 834. प्रमाण 835. स्‍वरगम्‍य 836. कलाक्षर 837. शमी 838. श्‍यामी 839. शतानन्‍द 840. शतयाम 841. शतक्रतु 842. जागर 843. सुप्‍त 844. आसुप्‍त 845. सुषुप्‍त 846. स्‍वप्‍न 847. उर्वर 848. ऊर्ज 859. स्‍फुर्ज 850. निर्जर 851. विज्‍वर 852. ज्‍वरवर्जित 853. ज्‍वरजित् 854. ज्‍वरकर्ता 855. ज्‍वरयुक्त 856. त्रिज्‍वर 857. ज्‍वर 858. जाम्‍बवान् 859. जम्‍बुकाशङ्गी 860. जम्‍बूद्वीप 861. द्विपारिहा 862. शाल्‍मलि 863. शाल्‍मलिद्विप 864. प्‍लक्ष 865. प्‍लक्षवनेश्वर 866. कुशधारी 867. कुश 868. कौशी 869. कौशिक 870. कुशविग्रह 871. कुशस्‍थलीपति 872. काशीनाथ 873. भैरवशासन 874. दाशार्ह 875. सात्‍वत 876. वृष्णि 877. भोज 878. अन्‍धकनिवासकृत 879. अन्‍धक 880. दुन्‍दुभि 881. द्योत 882. प्रद्योत 883. सात्‍वतां पति 884. शूरसेन 885. अनुविषय 886. भोजेश्वर 887. वृष्‍णीश्वर 888. अन्‍धकेश्वर 889. आहुक 890. सर्वनीतिज्ञ 891. उग्रसेन 892. महोग्रवाक 893. उग्रसेनप्रिय 894. प्रार्थ्‍य 895. प्रार्थ 896. यदुसभापति 897. सुधर्माधिपति 898. सत्व 899. वृष्णिचक्रावृत 900. भिषक 901. सभाशील 902. सभादीप 903. सभाग्नि 904. सभारवि 905. सभाचन्‍द्र 906. सभाभास 907. सभादेव 908. सभापति 909. प्रजार्थद 910. प्रजाभर्ता 911. प्रजा-पालनतत्‍पर 912. द्वारकादुर्गसंचारी 913. द्वारकाग्रहविग्रह 914. द्वारकादु:खसंहर्ता 915. द्वारकाजन-मंगल 916. जगन्‍माता 917. जगत्‍त्राता 918. जगद्भर्ता 919. जगत्पिता 920. जगद् बन्‍धु 921. जगद्धाता 922. जगन्मित्र 923. जगत्‍सख 924. ब्रह्मण्‍य-देव 925. ब्रह्मण्‍य 926. ब्रह्मपादरजो दधत् 927. ब्रह्मपादरज:स्‍पर्शी 928. ब्रह्मपाद-निषेवक 929. विप्राड्घ्रिजलपूताङ्ग 930. विप्रसेवापरायण 931. विप्रमुख्‍य 932. विप्रहित 933. विप्रगीतमहाकथ 934. विप्रपादजलार्द्राङ्ग 935. विप्रपादोदकप्रिय 936. विप्रभक्त 937. विप्रगुरु 938. विप्र 939. विप्रपदानुग 940. अक्षौहिणीवृत 941. योद्धा 942. प्रतिमापञ्चसंयुक्त 943. चतुर 944. अगडि़रा 945. पद्मवर्ती 946. सामन्‍तोद् धृतपादुक 947. गजकोटि-प्रयायी 948. रथकोटिजयध्‍वज 949. महारथ 950. अतिरथ 951. जैत्रस्‍यन्‍दनमास्थित 952. नारायणास्‍त्री 953. ब्रह्मास्‍त्री 954. रणश्‍लाघी 955. रणोद्भट 956. मदोत्‍कट 957. युद्धवीर 958. देवासुर-भयंकर 959.करिकर्णमरुत्‍प्रेजत्‍कुन्‍तल-व्‍याप्‍तकुण्‍डल 960. अग्रग 961. वीरसम्‍मर्द 962. मर्द्दल 963. रणदुर्मद 964. भटप्रतिभट 965. प्रोच्‍य 966. बाणवर्षी 967. इषुतोयद 968. खड्गखणिडतसर्वाङ्ग 969. षोडशाब्‍द 970. षडक्षर 971. वीरघोष 972. अक्लिष्‍टवपु 973. वज्रागड़ 974. वज्रभेदन 975. रुग्‍णवज्र 976. भग्रदन्‍त 977. शत्रु-निर्भर्त्‍सनोद्यत 978. अट्टहास 979. पट्टधर 980. पट्टराज्ञीपति 981. पटु 982. कल 983. पटहवादित्र 984. हुंकार 985. गर्जितस्‍वन 986. साधु 987. भक्तपराधीन 988. स्‍वतन्‍त्र 989. साधुभूषण 990. अस्‍वतन्‍त्र 991. साधुमय 992. मनाकसाधुग्रस्‍तमना 993. साधुप्रिय 994. साधुधन 995. साधुज्ञाति 996. सुधा-घन 997. साधुचारी 998. साधुचित्त 999. साधुवश्‍य 1000. शुभास्‍पद महात्‍म्‍य अध्‍ययन

यह बलभद्र सह सहस्रनाम सभी सिद्धि तथा लक्ष्‍मी, वैभव, मोक्ष फल बल तथा तेज प्रदान करने वाला है। संतान तथा पुत्र प्राप्त करने के किये सहस्रनाम पाठ का प्रचालन है, इसके नियमतः पाठ से रोगी काया निरोगी हो जाती है ! घोर पापी मनुष्‍य भी यदि इस सहस्रनाम का पाठ करता है तो उसके सारे पाप धुल जाते हैं और वह इस लोक में सम्‍पूर्ण सूखों का उपभोग करके अन्‍त में परलोक गमन करता है ।

नारदजी कहते है-

अच्‍युताग्रज श्रीबलभद्रजी इस पंचाग को सुनकर धृतिमान दुर्योधन ने सेवा-भाव तथा परम भक्ति के साथ प्राडविपाक मुनि की पूजा की। तदनन्‍तर मुनीन्‍द्र प्राडविपाक जी ने दुर्योधन को आशीर्वाद देकर उनकी अनुमति प्राप्‍त कर हस्तिनापुर से अपने आश्रम को गमन किया। परम ब्रह्म परमात्‍मा भगवान अनन्‍त श्रीबलभद्रजी की कथा को जो पुरुष सुनता अथवा सुनाता है, वह आनन्‍दमय बन
जाता है। नृपेन्‍द्र ! मैं आपके सामने इन सब मनोरथों को पूर्ण करने वाले बलभद्र खण्‍ड का वर्णन कर चुका। जो मनुष्‍य इसका श्रवण करता है, वह भगवान श्रीहरि के शोक रहित अखण्‍ड आनन्‍दमय धाम को प्राप्‍त हो जाता है।

इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीबलभद्र खण्‍ड के अन्‍तर्गत प्राडविपाक दुर्योधन संवाद में ‘श्री बलभद्र सहस्र’ नाम पूरा हुआ।

श्री बलराम-कवच

श्री बलराम कवच गर्ग संहिता का हिस्सा है । यह कवच एक तरह से श्री बलराम जी से वरदान मागने वाला पाठ है । यह पाठ हमें साहस और हिम्मत प्रदान करता है और दुष्टों से हमारी रक्षा करता है । इस कवच को प्राडविपाक मुनि ने दुर्योधन को सुनाया था । यह कवच नियमित रूप से पाठ करने से या सुनने से भगवान बलभद्र का आशीर्वाद प्राप्त होता है । आएये आगे हम इस श्री बलराम-कवच के संस्कृत श्लोक और उसके अर्थ जानते हैं ।

उवाच- गोपीभ्‍य:

कवचं दत्तं गर्गाचार्येण धीमता।

सर्वरक्षाकरं दिव्‍यं देहि मह्यं महामुने ।

दुर्योधन ने कहा- महामुने! श्रीमान् गर्गाचार्य ने गोपियों को जो सब तरह से रक्षा करने वाले दिव्‍य कवच दिया था, आप उसे मुझ को प्रदान कीजिये।

प्राडविपाक उवाच- स्‍त्रात्‍वा

जले क्षौमधर: कुशासन: पवित्रपाणि: कृतमन्‍त्रमार्जन: ।

स्‍मृत्‍वाथ नत्‍वा बलमच्‍युताग्रजं

संधारयेद् वर्म समाहितो भवेत् ।।

प्राडविपाक बोले- मनुष्‍य जल में स्‍न्नान करके रेशमी वस्‍त्र धारण करे, कुशासन पर बैठे और हाथ में कुश की पवित्री पहनकर मन्त्र का शोधन करे। तदनन्‍तर अच्‍युताग्रज भगवान बलरामजी का स्‍मरण करके उन्‍हें प्रणाम करे। फिर मन को एकाग्र करके मन्त्र रुपी कवच को धारण करे।

गोलोकधामाधिपति: परेश्‍वर:

परेषु मां पातु पवित्राकीर्तन: ।

भूमण्‍डलं सर्षपवद् विलक्ष्‍यते यन्‍मूर्ध्नि मां पातु स भूमिमण्‍डले ।।

जो भगवान गोलोक धाम के अधिपति हैं, जिनका कीर्तन परम पवित्र है, वे परमेश्वर शत्रुओं से मेरी रक्षा करें। जिनके मस्‍तक पर भूमण्‍डल सरसों की तरह प्रतीत होता है, वे भगवान भूमण्‍डल में मेरी रक्षा करें।

सेनासु मां रक्षतु

सीरपाणिर्युद्धे सदा रक्षतु मां हली च ।

दुर्गेषु चाव्‍यान्‍मुसली

सदा मां वनेषु संकर्षण आदिदेव: ।।

हलधर भगवान सेना में और युद्ध में सदा मेरी रक्षा करें। मुसलधारी भगवान दुर्ग में और आदिदेव भगवान संकर्षण वन में मेरी रक्षा करें।

कलिन्‍दजावेगहरो जलेषु

नीलाम्‍बुरो रक्षतु मां सदाग्नौ ।

वायौ च रामाअवतु खे बलश्‍च

महार्णवेअनन्‍तवपु: सदा माम् ।।

यमुना के प्रवाह को रोकने वाला भगवान जल में और नीलाम्‍बरधारी भगवान अग्नि में निरन्‍तर मेरी रक्षा करें। भगवान राम वायु (आंधी) में मेरी रक्षा करें। शून्‍य (आकाश) में भगवान बलदेव और महान समुद्र में अनन्‍तवपु भगवान मेरी सदा रक्षा करें।

श्रीवसुदेवोअवतु पर्वतेषु

सहस्‍त्रशीर्षा च महाविवादे ।

रोगेषु मां रक्षतु

रौहिणेयो मां कामपालोऽवतु वा विपत्‍सु ।।

पर्वतों पर भगवान वासुदेव मेरी रक्षा करें। घोर विवाद में हजार मस्‍तक वाले प्रभु, रोग में श्रीरोहिणीनन्‍दन तथा विपति में भगवान कामपाल मेरी रक्षा करें। पर्वतों पर भगवान वासुदेव मेरी रक्षा करें। घोर विवाद में हजार मस्‍तक वाले प्रभु, रोग में श्रीरोहिणीनन्‍दन तथा विपति में भगवान कामपाल मेरी रक्षा करें।

कामात् सदा रक्षतु

धेनुकारि: क्रोधात् सदा मां द्विविदप्रहारी ।

लोभात् सदा रक्षतु बल्‍वलारिर्मोहात्

सदा मां किल मागधारि: ।।

धुनुकासुर के शत्रु भगवान काम (कामना) से मेरी रक्षा करे। द्विविद पर प्रहार करने वाले भगवान क्रोध से, बल्‍वल के शत्रु भगवान लोभ से और जरासंध के शत्रु भगवान मोह से सदा मेरी रक्षा करें।

प्रात: सदा रक्षतु

वृष्णिधुर्य: प्राह्णे सदा मां मथुरापुरेन्‍द्र: ।

मध्‍यंदिने गोपसख:

प्रपातु स्‍वराट् पराह्णेऽस्‍तु मां सदैव ।।

भगवान वृष्टि धुर्य प्रात:काल के समय, भगवान मथुरापुरी-नरेश पूर्वाह्न (प्रहार दिन चढ़े), गोप सखा मध्‍याह्न में और स्‍वराट् भगवान पराह (दिन के पिछले पहर) में सदा मेरी रक्षा करें।

सायं फणीन्‍द्रोऽवतु मां

सदैव परात्‍परो रक्षतु मां प्रदोषे ।

पूर्णे निशीथे च

दरन्तवीर्य: प्रत्यूषकालेऽवतु मां सदैव ।।

भगवान फणीन्‍द्र सायंकाल में त‍था परात्‍पर प्रदोष के समय मेरी सदा रक्षा करें।

विदिक्षु मां रक्षतु

रेवतीपतिर्दिक्षु प्रलम्‍बारिरधो यदूद्वह: ।।

ऊर्ध्‍वं सदा मां बलभद्र

आरात् तथा समन्‍ताद् बलदेव एव हि ।।

कोनों में रेवती पति, दिशाओं में प्रलम्‍बासुर के शत्रु, नीचे यदूद्वह, ऊपर बलभद्र और दूर अथवा पास सब दिशाओं में भगवान बलदेवजी मेरी सदा रक्षा करें।

अन्‍त: सदाव्‍यात्

पुरुषोत्तमो बहिर्नागेन्‍द्रलीलोऽवतु मां महाबल: ।

सदान्‍तरात्‍मा च वसन्

हरि: स्वयं प्रपातु पूर्ण: परमेश्‍वरो महान् ।।

भीतर से पुरुषोत्तम और बाहर से महाबल नागेन्‍द्र लील मेरी सदा रक्षा करें और पूर्ण परमेश्वर महान हरि स्‍वयं सदा सर्वदा मेरे हृदय में निवास करते हुए उत्‍कृष्‍ट रूप में सदा मेरी रक्षा करें।

देवासुराणां भ्‍यनाशनं च

हुताशनं पापचयैन्‍धनानाम् ।

विनाशनं विघ्नघटस्‍य

विद्धि सिद्धासनं वर्मवरं बलस्‍य ।।

श्रीबलभद्रजी के इस उत्तम कवच को देव तथा असुरों के भय का नाश करने वाला, पाप रूप ईधन को जलाने के लिये साक्षात अग्निरूप और विघ्रों के घट का विनाश करने वाला सिद्धासन रूप समझे। गर्ग संहिता बलभद्र खण्‍ड‎: अध्याय 12 श्री बलराम-कवच

इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीबलभद्र खण्‍ड के अन्‍तर्गत श्री प्राडविपाक मुनी और दुर्योधन के संवाद में ‘श्री बलराम कवच’ नामक बारहवां अध्‍याय पूरा हुआ।

हलषष्ठी व्रत

जन्माष्टमी के पहले भाद्रपद कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को हलषष्ठी व्रत भगवान बलभद्र जी की पूजा कर के मनाया जाता है। इस व्रत को पूरे भारत में मनाया जाता है । स्थान विशेष पर इसे कई नाम हैं जैसे ललई छठ, हरछठ, हलछठ, तिन्नी छठ या खमर छठ । इस दिन हल से उगाये जाने वाले अनाज और शब्जी का सेवन नहीं किए जाने का विधान है। इस दिन गाय के दुध और उससे बने किसी सामाग्री का सेवन नहीं किया जाता ।

हलषष्ठी व्रत की मान्यता : धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन बलभद्र जी का जन्म हुआ था। बलभद्र जी का प्रधान शस्त्र हल है, इस दिन हल से जोड़ कर हल षष्ठी, हरछठ या ललही छठ के रूप में भी मनाया जाता है। यह मान्यता है कि इस व्रत को करने से पुत्र पर आने वाले सभी संकट दूर हो जाते हैं।

हलषष्ठी की पूजा विधि: यह पर्व पूरी स्वाक्षता तथा सफाई के साथ महिलाएँ मनाती आई हैं। स्नान के बाद साफ कपड़े पहन कर पूजा स्थान को भैंस के गोबर से लीपा जाता है वहीं एक तलब (स्वरूप) बनाया जाता है । इस तालाब में झरबेरी (एक कंटीली झाड़ी है जिसमें बेर जैसे फल लगते हैं।) कुश, पलाश, महुआ की टहनी, अमलतास की टहनी को बांधकर तालाब में गाड़ दिया जाता है। चढ़ावा के लिए सात अनाजों धान, मक्का, गेंहू, जौ, अरहर, मूंग मिट्टी के पात्र मेँ चढ़ाया जाता है। इसे “सतनाजा” कहा जाता है।

इसके बाद हरी कजरियां (हरे गेहूं जवार), धूल के साथ भुने हुए चने और जौ की बालियां चढ़ते हैं। फूल माला, आभूषण और हल्दी से रंगा हुआ कपड़ा, नीला कपड़ा भी चढ़ता है। फिर भैंस के दूध से बने मक्खन से हवन करें। गाय के दूध से बने चीजों का उपयोग नहीं किया जाता है। अंत में हरछठ की कथा सुनते हुए विधि-विधान के साथ पूजा-अर्चना होती है।

हलषष्ठी का व्रत कथा: इस व्रत से जुड़ी एक कथा को जानते हैं। एक गाव में एक ग्वालिन रहती थी, वह एक समय गर्भवती थी और उसके बच्चे के जन्म लेने का समय नजदीक था, लेकिन उस दिन के दूहे हुए दूध-दही खराब न हो जाए, इसलिए वह सारे दूध-दही उसको बेचने चल दी। कुछ दूर पहुंचने पर ही उसे प्रसव पीड़ा आरम्भ हुई और उसने झरबेरी के झाड़ की ओट में उसने एक बच्चे को जन्म दिया। उस दिन हल षष्ठी थी। थोड़ी देर विश्राम करने के बाद वह बच्चे को वहीं छोड़ दूध-दही बेचने चली गई। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने गांव वालों ठग लिया। इससे व्रत करने वालों का व्रत भंग हो गया। इस पाप के कारण झरबेरी के नीचे स्थित पड़े उसके बच्चे को किसान का हल लग गया। दुखी किसान ने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और चला गया।

थोड़ी देर जब ग्वालिन दूध बेच कर लौटी तो बच्चे की ऐसी दशा देख कर उसे अपना पाप याद आ गया। उसने तत्काल प्रायश्चित किया और गांव में घूम कर अपनी ठगी की बात और उसके कारण खुद को मिली सजा के बारे में सबको बताया। उसके सच बोलने पर सभी ग्रामीण महिलाओं ने उसे क्षमा किया और आशीर्वाद दिया। इस प्रकार ग्वालिन जब लौट कर खेत के पास आई तो उसने देखा कि उसका पुत्र बिल्कुल सही अवस्था मेँ है और वह हँस-खेल रहा था। तभी से इस हलषष्ठी के व्रत को मनाया जाने लगा।
हलषष्ठी के व्रत कुछ अन्य कथाएँ : –द्वापर युग मे एक बार भगवान कृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर आपस में पुराणोक्त चर्चा मेंसंलग्न थे। तभी महाराज युधिष्ठिर ने पूछा हे भगवान! हे कृष्ण! हे मधुसुदन! पुत्र से संबंधित समस्तमनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला उत्तम व्रत कौन सा है। यदि मेरे ऊपर आपकी कृपा हो तो कृपा कर कहिए। तब भगवान श्री कृष्ण बोले हे राजन्! हलषष्ठी के समान दूसरा कोई व्रत नही है। तब धर्मराज ने पूछा कि हे महाराज यह व्रत कब और कैसे प्रगट हुआ। तब श्री कृष्ण जी बोले कि हे राजन् इस व्रत का आरंभ हमारी माता से हुआ। हमारे माता-पिता के छः पुत्रो को कंस ने मार डाला था। तो माता देवकी एक दिन अत्यंत उदास होकर बैठी हुई थी। उसी समय नारद जी वहाँ उपस्थित हुए और माता देवकी से उनकी उदासी का कारण पूछा। तब माता देवकी ने नारद जी को अपने पुत्रो के नष्ट होने की बात बताई। श्री नारद जी ने कहा कि बेटी उदास मत हो। हलषष्ठी महारानी का व्रत करो। देवकी ने महिमा पूछा तो नारद जी ने एक प्राचीन इतिहास सुनाया।

आर्यावर्त में एक महान प्रतापी राजा हुए जिनका नाम चंद्रव्रत था। उनको एक ही पुत्र था। राजा चंद्रव्रत ने एक तालाब खुदवाया परंतु उसमें जल ना रहे। सब सूख जाय राहगीर तालाब को सूखा देखकर राजा को गाली देकर वापस हो जाते राजा सुन-सुनकर अत्यंत दुखी हुए । आर्यावर्त में एक महान प्रतापी राजा हुए जिनका नाम चंद्रव्रत था। उनको एक ही पुत्र था। राजा चंद्रव्रत ने एक तालाब खुदवाया परंतु उसमें जल ना रहे। सब सूख जाय राहगीर तालाब को सूखा देखकर राजा को गाली देकर वापस हो जाते राजा सुन-सुनकर अत्यंत दुखी हुए और कहने लगे कि मेरा तो धन और धर्म दोनो ही नष्ट हो गया। एक रात राजा को वरुण देव ने स्वप्न में दर्शन दिया और कहा कि हे राजन् अपने पुत्र की बलि दोगे तो तालाब में पानी आ जावेगा। राजा ने मंत्री व सभासदों को रात्रि का स्पप्न सुनाया और कहा तालाब में पानी रहे या ना रहे पर मैं अपने इकलौते पुत्र की बलि नहीं दूँगा। इस बात को राजकुमार ने सुना और कहा मैं स्वयं बलि हो जाऊँगा। जिससे मेरे पिताजी महाराज को राहगीरों की गालियों सुनने को नहीं मिलेगी तथा मेरा और मेरे पिता दोनों का यश होगा ऐसा कहकर तालाब की परिक्रमा की और बीच में जाकर बैठ गया। क्षण भर में तालाब भर गया कमल खिल गए और जलजंतु बोलने लगे। इस बात को सुनकर राजा बहुत दुखी हुए और वन को चले गए। वन में राजा ने देखा पाँच स्त्रियाँ हलषष्ठी व्रत की पूजा कर रही थी। राजा के पूछने पर उन्होंने व्रत का महात्म और विधान बतला दिया। राजा राजमहल लौटकर रानी से इस व्रत की पूजा करने को कहा। रानी ने उसी दिन व्रत की और हलषष्ठी महारानी की पूजा की पूजा के प्रभाव से राजा का लड़का तालाब से निकलकर खेलने लगा। राजा-रानी ने जब समाचार सुने तो बड़े प्रसन्न हुए और लड़के को अपने घर ले आये। तब से प्रतिवर्ष रानी हलषष्ठी महारानी का व्रत करने लगी। ।। बोलो हलषष्ठी महारानी की जय ॥ ॥ इति प्रथमोध्यायः ॥

( कथा 2 प्रारंभ ) ॥ अथ हलषष्ठी व्रत कथा ॥

नारद जी दूसरी कथा कहते हुए कहने लगे। अवंतिका नगरी में संपत लाल नामक व्यक्ति रहता था। उनकी दो स्त्रियाँ थी रेवती एवं मानवती। इस तरह दोनो सौत पति के साथ आनंद पूर्वक रहती थी। भाग्य से रेवती को कोई संतान नहीं हुआ परन्तु मानमती ने दो पुत्रों को जन्म दिया। अब तो सौत के बच्चों को देखकर रेवती के मन में ईर्ष्या की भावना बढ़ने लगी। रेवती एक दिन मानमती से छल पूर्वक बोली कि हे बहन! तुम्हारे पिता जी बहुत बीमार है और तुम्हे देखने को बुलाये है। मुझे इस प्रकार एक राहगीर ने सूचना दी है। मानमती पिता को अस्वस्थ सुनकर दुखी हुई और अपने पुत्रों को रेवती को सौंपते हुए कही बहन में अपने पिताजी को देखकर आती हूँ तब तक तुम मेरे पुत्रों का ध्यान रखना ऐसा कहकर वह चली गई। इधर रेवती ने अपनी चाल में सफलता पाती हुई दोनो बच्चों को मारकर फेंक दिया। उधर मानमती अपने पिताजी को स्वस्थ देखकर चकित रह गई। पिता । जी के पूछने पर रेवती की बात सुनाई और कही कि मैं अब अपने घर जाती हूँ।

तब माता ने कहा पुत्री आज हलषष्ठी व्रत है। इसलिए मत जा मानमती ने भी श्रद्धा से पूजा व प्रार्थना की कि हे हलषष्ठी देवी माता ! मेरे दोनों बच्चों के ऊपर कोई आपत्ति न आये उनकी सहायता करना उन्हें दीर्घायु करना दूसरे दिन पिता की आज्ञा से अपने घर के लिए चली तभी रास्ते में गांव के बाहर अपने दोनों बच्चों को खेलते देखकर आश्चर्य में डूब गई कि इन्हें यहाँ कौन लाया।

तब बच्चों ने बताया कि हे माता रेवती माता ने हमें मारकर यहाँ फेंक गई थी एक दूसरी माता आकर हमें जिंदा कर गई मानमती हलषष्ठी देवी की कृपा मानकर बच्चों को लेकर अपने घर पहुँची रेवती और अन्य स्त्रियों ने आश्चर्य माना और मानमती से सारी बात जानकर उस दिन से सभी स्त्रियाँ हलषष्ठी माता का व्रत करने लगी।

॥ बोलो हलषष्ठी महारानी की जय ॥ ॥ इति द्वितीयो अध्यायः ॥

बलभद्र मनावन

बलभद्र पूजा और एक परम्परा है जिसे विवाह के पहले व्याहुत कलवार द्वारा मनाया जाता है।

कथा : बात महाभारत के दिनों की है, दुर्योधन अपने गुरु अथार्त बलराम जी को अपना पराक्रम दिखा उन्हें खुश कर बहन सुभद्रा से विवाह करवाने का वचन ले लिया, पर यह बात श्री कृष्ण को पसंद न थी । श्री कृष्ण सुभद्रा का विवाह अर्जुन से करवाना चाहते थे । अतः उन्होंने सुभद्रा के अपहरण की योजना बनाई । इस योजना तहत सुभद्रा ने रथ चलाया और अर्जुन पीछे बैठ गए, और राजमहल से भाग गए । जब इसकी सूचना बलभद्र जी को मिली तो वे बहुत नाराज हुए और अर्जुन को सजा देने के लिए श्रीकृष्ण को साथ लेने पहुंचे । उस समय श्री कृष्ण ने उन्हें समझाया कि सुभद्रा का अपहरण नहीं हुआ है अपितु “हमारी बहन अर्जुन से प्रेम करती हैं और वह रथ चला कर अर्जुन का अपहरण कर के ले गई है” अर्जुन अपराधी नहीं हैं तथा वह सुभद्रा के लिए सुपात्र भी है । इस तरह बलभद्र जी को बहुत अनुनय विनय “मनावान” कर के उन्हें मनाया गया । बलभद्र जी मान गए और विवाह का आशीष दिया । तभी से कलवार जाती के व्यहूत कुड़ी (उपजाति) में बलभद्र मनावन की परंपरा चली आ रही है इस विधि को मान कर आज भी व्याहुत लोगों में विवाह सम्पन्न होते हैं ।

पूजा तथा मनावान की विधि : इस रस्म को मानाने के लिए सर्वप्रथम कुम्हार के घर से बलराम जी (बलभद्र जी ) की एक मिट्टी की छोटी प्रतिमा लाई जाती है । इस प्रतिमा को जौ से सजाया जाता है । बाजे गाजे के साथ इस प्रतिमा को घर की महिलाएं ले कर आती हैं इसे “श्री बलभद्र लाना” कहतें हैं । उपवास रह कर अति शुद्धता और भक्ति के साथ पूजा स्थान पर कुल देवता बलभद्र जी स्थान दिया जाता है और पूजा की जाती है । छोटे छोटे चुकिया कलश जो ढक्कन के साथ होता है उनके सम्मुख रखा जाता है । इन पात्रों को चनादाल तथा शुद्ध घी से बने मीठा बुंदिया से भरा जाता है और उसे ढक दिया जाता है । एक पात्र में चीनी का सरबत भी भरा जाता है । एक पत्तल में पान का बीड़ा, और दांत सफा करने हेतु खरिक्का रखा जाता है । श्री बलभद्र भगवान जी को भोग लगाने के लिए “कच्ची रसोई” जैसे भात, दाल, बजका, बरी, अदौरी, फुलौरा (एक तरह की खाश मिठाई), सब्जी, इत्यादि बनाया जाता है और एक थाली में भोग लगता है । इस प्रसाद को उसी थाली में मिला कर अपने कुल के सदस्यों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है !

यह पूजा 5 पुरुष जो कि अपने कुल के होते हैं वे करतें हैं । ये पांचो व्यक्ति उस थाली को पकड़ कर एक दुसरे से प्रश्न-उत्तर करतें हैं (5 बार) ये प्रश्न उत्तर निम्नलिखित हैं :

प्रश्न होता है “बलभद्र जी उठालें ? ” उत्तर सभी देतें हैं “ हाँ उठलें !”

प्रश्न होता है “ बलभद्र जी मुहँ धोवलें ?” उत्तर दिया जाता है “ हाँ धोवलें !”

प्रश्न होता है “बलभद्र जी खाना खइलन ?” तब उत्तर होता है “हाँ खइलन !”

प्रश्न होता है “बलभद्र जी कुल्ला कइलन ?” उत्तर सबकोई मिलकर स्वांग के साथ देतें हैं “हाँ कुल्ला कइलन!”

प्रश्न किया जाता है “बलभद्र पान खइलन” सभी पान खाने स्वांग के साथ कहतें हैं “हाँ खइलन!”

इस मनवान की परम्परा को कलवार समाज के व्याहुत वर्ग मानते आया है । इसे सम्पन्न करने के बाद समझा जाता है कि बलभद्रा जी अब मान गएँ हैं, अतः उनके आशीर्वाद से विवाह निर्विघ्न रूप से सम्पन्न होगा ।

प्रतिमा विसर्जन: विवाह होने तक बलभद्र जी के प्रतिमा को पूजा घर में रखा जाता है । “चौठारी” (दुलहा-दुलहिन के हांथों के मंगल बंधनवार को खोलने तथा मंदिरों में दर्शन वाले दिन ) इस प्रतिमा को बड़े ही श्रद्धा, सम्मान और प्यार से नजदीक के नदी में विसर्जित कर दिया जाता है ।

श्री दाऊजी का मन्दिर: मथुरा

श्री दाऊजी का मन्दिर: बलदेव

यह स्थान मथुरा जनपद में ब्रजमंडल के पूर्वी छोर पर स्थित है।मथुरा से 21 कि०मी० दूरी पर एटा-मथुरा मार्ग के मध्य में स्थितहै।मार्ग के बीच में गोकुल एवं महावन जो कि पुराणों में वर्णित वृहद्वन के नाम से विख्यात है, पड़ते हैं।यह स्थान पुराणोक्त विद्रुमवन के नाम से निर्दिष्ट है।इसी विद्रुभवन में भगवान श्री बलराम जी की

अत्यन्त मनोहारी विशाल प्रतिमात था उनकी सहधर्मिणी राजा की पुत्री ज्योतिष्मती रेवती जीका विग्रह है।यह एक विशालकाय देवालय है जो कि एक दुर्ग की भाँति सुदृढ प्राचीरों से आवेष्ठित है।मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार है। इसमन्दिर के चार मुख्य दरवाजे हैं, जो क्रमश: सिंहचौर, जनानी ड्योढी, गोशालाद्वार या बड़वाले दरवाज़े के नाम से जानेजातेहैं।मन्दिर के पीछे एक विशाल कुण्ड हैजो कि बलभद्रकुण्ड के नाम से पुराण वर्णित है।आजकल इसे क्षीरसागर के नाम से पुकारते हैं।

श्री दाऊजी की मूर्ति-

देवालय मेंपूर्वाभिमुख 2 फुटऊँचे संगमरमर के सिंहासन पर स्थापित है।पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के पौत्र श्रीवज्रनाभ ने अपने पूर्वजों की पुण्यस्मृति में तथा उनके उपासना क्रम को संस्थापित करने हेतु 4 देवविग्रहतथा 4 देवियों की मूर्तियाँ निर्माण कर स्थापित की थीं।जिन में से श्रीबलदेवजी का यही विग्रह है जो कि द्वापरयुग के बाद कालक्षेप से भूमिस्थ हो गया था।पुरातत्ववेत्ताओं का मत है यह मूर्तिपूर्व कुषाण कालीन है जिसका निर्माण काल 2 सहस्र या इससे अधिक होना चाहिये।ब्रजमण्डल के प्राचीन देवस्थानों में यदि श्रीबलदेव जी विग्रह को प्राचीनतम कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं। ब्रज के अतिरिक्त शायद कहीं इतना विशाल वैष्णव श्रीविग्रह दर्शन को मिले।यह मूर्ति क़रीब 8 फुट ऊँची एवं साढे तीन फुट चौडी श्याम वर्ण की है।पीछे शेषनाग सात फनों सेयुक्त मुख्य मूर्ति की छाया करते हैं।मूर्ति नृत्यमुद्रा में है, दाहिना हाथ सिर से ऊपर वरद मुद्रा में है एवं बाँये हाथ में चषक है।विशाल नेत्र, भुजाएं-भुजाओं में आभूषण, कलाई में कंडूला उत्कीर्णित हैं।मुकट में बारीक नक्काशी का आभास होता है पैरों में भी आभूषण प्रतीत होते हैं तथा कटि प्रदेश में धोती पहने हुए हैं मूर्ति के कान में एक कुण्डल है तथा कण्ठ में वैजन्ती माला उत्कीर्णित हैं।मूर्ति केसिर के ऊपर से लेकर चरणों तक शेषनाग स्थित है।शेष के तीन वलय हैं जो कि मूर्ति में स्पष्ट दिखाई देते हैं।और योग शास्त्र की कुण्डलिनी शक्ति केप्रतीक रूप हैं क्योंकि पौराणिक मान्यता केअनुसार बलदेव जी शक्ति के प्रतीक योग एवं शिलाखण्ड में स्पष्ट दिखाई देती हैं जो कि सुबल, तोषएवं श्रीदामा सखाओं की हैं। बलदेव जी के सामने दक्षिण भाग में दो फुट ऊँचे सिंहासन पर रेवती जी की मूर्ति स्थापित हैं जो कि बलदेव जी के चरणोन्मुख है और रेवती जी के पूर्ण सेवा-भाव की प्रतीक है।यह मूर्ति क़रीब पाँच फुट ऊँची है।दाहिना हाथ वरदमुद्रा में तथा वाम हस्त कटिप्रदेश के पास स्थित है।इस मूर्ति में ही सर्पवलय का अंकन स्पष्ट है।दोनों भुजाओं में, कण्ठमें, चरणों में आभूषणों का उत्कीर्णन है।उन्मीलित नेत्रों एवं उन्नत उरोजों से युक्त विग्रह अत्यन्त शोभायमान लगता हैं।सम्भवत: ब्रजमण्डल में बलदेव जी से प्राचीन कोई देव विग्रह नहीं।ऐतिहासिक प्रमाणों में चित्तौड़ के शिलालेखों में जो कि ईसा से पाँचवी शताब्दी पूर्व के हैं बलदेवोपासना एवं उनके मन्दिर को इंगित किया है।

अर्पटक, भोरगाँव नानाघटि का के शिला लेख जो कि ईसा के प्रथम द्वितीय शाताब्दी के हैं, जुनसुठी की बलदेव मूर्ति शुंगकालीन हैतथा यूनान के शासक अगाथोक्लीज की चाँदी की मुद्रा पर हलधारी बलराम की मूर्ति का अंकन सभी बलदेव जी की पूजा उपासनाए वंजनमान्यओं के प्रतीक हैं।

मूर्तिकाप्राकट्य-

इस बलदेव मूर्ति के प्राकट्य का भी एक बहुत रोचक इतिहास है।मध्य युग का समय था मुग़ल साम्राज्य का प्रतिष्ठा सूर्य मध्यान्ह में था। अकबर अपनेभारीश्रम, बुद्धि चातुर्य एवं युद्ध कौशल से एक ऐसी सल्तनत की प्राचीर के निर्माण में रत था जो कि उस के कल्पनालोक की मान्यता के अनुसारक भी न ढहे और पीढी-दर-पीढी मुग़लिया ख़ानदान हिन्दुस्तानकी सरज़मीं पर निष्कंटक अपनी सल्तनत को क़ायम रखकर गद्दी एवं ताज का उपभोग करते रहे।एक ओर यह मुग़लों की स्थापना का समय था दूसरी ओर मध्ययुगीन धर्माचार्य एवंसन्तों के अवतरण तथा अभ्युदय का स्वर्णयुग।

ब्रजमण्डल मेंतत्कालीन धर्माचार्यों में महाप्रभु बल्लभाचार्य, श्री निम्बकाचार्य एवं चैतन्य संप्रदाय की मान्यताएं अत्यन्त लोकप्रिय थीं। गोवर्धन की तलहटी में एक बहुत प्राचीनतीर्थ-स्थल सूर्यकुण्ड एवंउ सका तटवर्तीग्राम भरना-खुर्द (छोटाभरना) था।इसी सूर्य कुण्ड के घाट पर परम सात्विक ब्राह्मण वंशावतंश गोस्वामी कल्याणदेवाचार्य तपस्या करते थे।उनका जन्म भी इसी ग्राम में अभयराम जी के घर में हुआ था।वे वंश-तंश श्रीबलदेवजी के अनन्य अर्चक थे।

एक दिन श्रीकल्याण-देवजी को ऐसी अनुभूति हुई कि उनका अन्तर्मनतीर्थाटन का आदेश दे रहा है।कुछ समय यों-ही बिताया किन्तु स्फुरणा बलवती ही होती जाती।अत: कल्याण-देवजी ने जगदीश यात्रा का निश्चय कर घर से प्रस्थान कर दिया श्री गिर्राज परिक्रमा कर मानसीगंगा स्नानकिया और फिरपहुँचे मथुरा, यमुना स्नान, दर्शन कर आगे बढ़े और पहुँचे विद्रुमवन जहाँ आज का वर्तमान बल्देव नगर है।यहाँ रात्रि विश्राम किया।सघनवट-वृक्षों की छाया तथा सरोवर का किनारा ये दोनों स्थितियाँ उनको रमीं।फलत: कुछ दिन यहीं तप करने का निश्चय किया।एक दिन अपने आन्हिक कर्म से निवृत हुये ही थे कि दिव्यहल-मूसलधारी भगवान श्रीबलराम उनके सम्मुख प्रकट हुये तथा बोले कि मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, वर माँगो।कल्याण-देवजी ने करबद्ध प्रणाम कर निवेदन किया कि प्रभु आपके नित्य दर्शन के अतिरिक्त मुझे कुछ भी अभीष्ट नहीं हैं।अत: आप नित्य मेरे घर विराजें।बलदेवजी ने तथास्तु कहकर स्वीकृति दी और अन्तर्धान हो गये।साथ ही यह भी आदेश किया कि ‘जिस प्रयोजन हेतु जगदीश यात्रा कर रहे हो, वे सभी फल तुम्हें यहीं मिलेंगे, इस हेतु इसी वट-वृक्ष के नीचे मेरी एवं श्री रेवती की प्रतिमाएं भूमिस्थ हैं, उनका प्राकट्य करो’।अब तो कल्याण-देवजी की व्यग्रता बढ गई और जुट गये भूमि के खोदने में, जिस स्थान का आदेश श्रीबलराम।दाऊजी ने किया था।

इधर एक और विचित्र आख्यान उपस्थित हुआ कि जिस दिन श्रीकल्याण-देवजी को साक्षात्कार हुआ उसी पूर्वरात्रि को गोकुल में श्रीमद्बल्लभाचार्य महाप्रभु के पौत्र गोस्वामीगोकुलनाथजी को स्वप्न हुआ कि ‘जो श्यामा गौ के बारे में आप चिन्तित हैं वह नित्य दूध मेरी प्रतिमा ऊपर स्त्रवित कर देती है। ग्वाला निर्दोष है।मेरी प्रतिमाएं विद्रुमवन में वट-वृक्ष के नीचे भूमिस्थ हैं प्राकट्य कराओ ‘ यह श्यामा गौसद्य: प्रसूता होने के बावजूद दूध नहीं देती थी।महाराज श्री को दूध के बारे ग्वाला के ऊपर सन्देह होता था।प्रभु की आज्ञा से गोस्वामी जी ने उपर्युक्त स्थल पर जाने का निर्णय किया।वहाँ जाकर देखा कि श्रीकल्याण-देवजी मूर्ति युगल को भूमि से खोदकर निकाल चुके हैं।वहाँ पहुँच नमस्कार अभिवादन के उपरान्त दोनों ने अपने-अपने वृतान्त सुनाये।अत्यन्त हर्ष विह्वल धर्माचार्य हृदय को विग्रहों के स्थापन के निर्णय की चिन्ता हुई और निश्चय किया कि इस घोर जंगल से मूर्ति द्वय को हटाकर क्यों न श्री गोकुल में प्रतिष्ठित किया जाय।एतदर्थ अनेक गाढ़ा मँगा ये किन्तु मूर्तिअपने स्थान से, कहते हैं कि चौबीस बैल और अनेक व्यक्तियों के द्वारा हटाये जाने पर भी, टस से मस न हुई और इतना श्रम व्यर्थ गया।हार मानकर यही निश्चय किया गया कि दोनों मूर्तियों को अपने प्राकट्य के स्थान प रही प्रतिष्ठित कर दिया जाय।अत: जहाँ श्रीकल्याण-देव तपस्या करते थे उसी पर्ण कुटी में सर्वप्रथम स्थापना हुई जिस के द्वारा कल्याण देवजी को नित्य घर में निवास करने का दिया गया, वरदान सफल हुआ।

यह दिन संयोगत: मार्गशीर्ष मास की पूर्णमासी थी।षोडसोपचार क्रम से वेदाचार के अनुरूप दोनों मूर्तियों की अर्चना की गई तथा सर्वप्रथम श्री ठाकुरजी को खीर का भोग रखा गया, अत: उस दिन से लेकर आज पर्यन्त प्रतिदिन खीर भोग में अवश्य आती है।गोस्वामी गोकुलनाथजी ने एक नवीन मंदिर के निर्माण का भार वहन करने का संकल्प लियातथा पूजा अर्चनाका भारउस दिन से अद्यावधि कल्याण वंशज ही श्रीठाकुरजी की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं यह दिनमार्ग शीर्ष पूर्णिमा सम्वत् 1638 विक्रम था। एक वर्ष के भीतर पुन: दोनों मूर्तियों को पर्णकुटी से हटाकर श्री गोस्वामी महाराज श्री केनव-निर्मित देवालय में, जो कि सम्पूर्ण सुविधाओं से युक्त था, मार्गशीर्ष पूर्णिमा संवत 1639 को प्रतिष्ठित कर दिया गया।यह स्थान कहते हैं भगवान बलराम की जन्म-स्थली एवं नित्य क्रीड़ास्थली है पौराणिक आख्यान के अनुसार यह स्थान नन्दबाबा के अधिकार क्षेत्र में था। यहाँ बाबा की गौ के निवास के लिये बड़े-बड़े खिरक निर्मितथे।मगधराज जरासंध के राज्य की पश्चिमी सीमा यहाँ लगती थीं, अत: यह क्षेत्र कंस के आतंक से प्राय: सुरक्षित था।इसी निमित्त नन्दबाबा ने बलदेव जी की माता रोहिणी को बलदेव जी के प्रसव के निमित इसी विद्रुमवन में रखा था और यहीं बलदेवजी का जन्म हुआ जिसके प्रतीक रूप रीढ़ा (रोहिणेयक ग्राम का अपभ्रंशतथाअबैरनी, बैर रहित क्षेत्र) दोनों ग्राम आज तक मौजूद हैं।धीरे धीरे समय बीत गया बलदेव जी की ख्याति एवं वैभव निरन्तर बढ़ता गया और समय आ गया धर्माद्वेषी शंहशाह औरंगजेब का।जिसका मात्र संकल्प समस्त हिन्दूदेवी-देवताओं की मूर्तिभंजन एवं देवस्थान को नष्ट-भ्रष्ट करना था।मथुरा के केशवदेव मन्दिर एवं महावन के प्राचीनतम देवस्थानों कोनष्ट-भ्रष्ट करता आगे बढा तो उसने बलदेव जी की ख्याति सुनी व निश्चय किया कि क्यों न इस मूर्ति को तोड़ दिया जाय।फलत: मूर्ति भंजनी सेना को लेकर आगे बढ़ा।कहते हैं कि सेना निरन्तर चलती रही जहाँ भी पहुँचते बलदेव की दूरी पूछने पर दो को सही बताई जाती जिससे उसने समझा कि निश्चय ही बल्देव कोई चमत्कारी देवविग्रह है, किन्तु अधमोन्मार्द्ध से ना लेकर बढ़ता ही चला गया जिसके परिणाम-स्वरूप कहते हैं कि भौरों और ततइयों (बेर्रा) का एक भारी झुण्ड उसकी सेना पर टूट पडा जिससे सैकडों सैनिक एवं घोडे आहत होकर काल कवलित हो गये।औरंगजेब ने स्वीकार किया देवालय का प्रभाव।और शाही फ़रमान जारी किया जिसके द्वारा मंदिर को ५ गाँव की माफी एवं एक विशाल नक्कार खाना निर्मित कराकर प्रभु को भेंट किया एवं नक्कार खाना की व्यवस्था हेतु धन प्रतिवर्ष राजकोष से देने के आदेश प्रसारित किया।वहीं नक्कार खाना आज भी मौजूद है और यवन शासक की पराजय का मूक साक्षी है।

इसी फरमान-नामे का नवीनीकरण उसके पौत्रशाहआलम ने सन् 1196 फसली की ख़रीफ़ में दो गाँव और बढ़ा कर यानी 7 गाँवकरदिया।जिनमें खड़ेरा, छवरऊ, नूरपुर, अरतौनी, रीढ़ा आदि जिसको तत्कालीन क्षेत्रीय प्रशासक (वज़ीर) नज़फखाँ बहादुर के हस्ताक्षर से शाही मुहर द्वारा प्रसारित किया गया तथा स्वयं शाहआलम ने एक पृथक्से आदेश चैत सुदी 3 संवत 1840 को अपनी मुहर एवं हस्ताक्षर से जारी किया।शाह आलम के बाद इस क्षेत्र पर सिंधिया राजवंश का अधिकार हुआ।उन्होंने सम्पूर्ण जागीर को यथा स्थान रखा एवं पृथक्से भोग राग माखन मिश्री एवं मंदिर के रख-रखाव के लिये राजकोष से धन देने की स्वीकृति दिनाँक भाद्रपद-वदी चौथ संवत 1845 को गोस्वामी कल्याण देव जी के पौत्र गोस्वामी हंसराज जी, जगन्नाथ जी को दी।यह सारी जमींदारी आज भी मंदिर श्री दाऊजी महाराज एवं उनके मालिक कल्याण वंशज, जो कि मंदिर के पण्डा पुरोहित कहलाते हैं, उनकेअधिकार में है। मुग़लकाल में एक विशिष्ट मान्यता यह थी कि सम्पूर्ण महावन तहसील के समस्त गाँवों में से श्री दाऊजी महाराज के नाम से पृथक्देव स्थान खाते कीमाल गुजारी शासन द्वारा वसूल कर मंदिर को भेंट की जाती थी, जो मुगल काल से आज तक शाही ग्रांट के नाम से जानी जाती हैं, सरकारी खजाने से आज तक भी मंदिर को प्रति वर्ष भेंट की जाती है।

ब्रिटिशशासन-

इसके बाद फिरंगी का जमाना आया।मन्दिर सदैव से देश-भक्तों के जमावड़े का केन्द्र रहा।उनकी सहायता एवं शरण-स्थल का एक मान्य-स्रोत भी।जब ब्रिटिश शासन को पता चला तो उन्होंने मन्दिर के मालिका पण्डों को आगाह किया कि वे किसी भी स्वतन्त्रता प्रेमी को अपने यहाँ शरण न दें परन्तु आत्मीय सम्बन्ध एवं देश के स्वतन्त्रता प्रेमी मन्दिर के मालिकों ने यह हिदायत नहीं मानी, जिस से चिढ़कर अंग्रेज शासकों ने मन्दिर के लिये जो जागीरें भूमि एवं व्यवस्थाएं पूर्वशाही परिवारों से प्रदत्त थी उन्हें दिनाँक 31 दिसम्बरसन् 1841 को स्पेशल कमिश्नर के आदेश से कुर्की कर जब्त कर लिया गया और मन्दिर के ऊपर पहरा बिठा दिया जिस से कोई भी स्वतन्त्रता प्रेमी मन्दिर में न आ सके।परन्तु किले जैसे प्राचीरों से आवेष्ठित मन्दिर में किसी दर्शनार्थी को कैसे रोक लेते? अत: स्वतन्त्रता संग्रामी दर्शनार्थी के रूप में आते तथा मन्दिर में निर्बाध चलने वाले सदावर्त एवं भोजन व्यवस्था का आनन्द लेते ओर अपनीकार्य-विधि का संचालन करके पुन: अभी ष्टस्थान को चले जाते।अत: प्रयत्न करने के बाद भी गदर प्रेमियों को शासन न रोक पाया।

मान्यताएं-

बलदेव एक ऐसा तीर्थ है जिसकी मान्यताएं हिन्दू धर्मा्वलम्बी करते आये हैं।धर्माचार्यों में श्रीमद् बल्लभाचार्य जी के वंश की तो बात ही पृथक्है । निम्बार्क, माध्व, गौड़ीय, रामानुज, शंकर कार्ष्णि, उदासीन आदि समस्त धर्माचार्यो, में बलदेव जी की मान्यताएं हैं।सभी नियमित रूप से बलदेव जी के दशनार्थ पधारते रहे हैं और यह क्रम आज भी जारी है।इसके साथ ही एक धक्का ब्रिटिशराज में मंदिर को तब लगा जब ग्राउस यहाँ का कलेक्टर नियुक्त हुआ।ग्राउस महोदय का विचार था कि बलदेव जैसे प्रभावशाली स्थान पर एक चर्च का निर्माण कराया जाय क्यों कि बलदेव उस समय एक मूर्धन्य तीर्थ स्थल था।अत: उसने मंदिर की बिना आज्ञा के चर्च निर्माण प्रारम्भ कर दिया।शाही जमाने से ही मंदिर की 256 एकड़ भूमि में मंदिर की आज्ञा के बगैर कोई व्यक्ति किसी प्रकार का निर्माण नहीं करासकता था।क्योंकि उपर्युक्त भूमि के मालिक जमींदार श्री दाऊजी हैं।तो उनकी आज्ञा के बिना कोई निर्माण कैसे हो सकता था? परन्तु उन्मादी ग्राउस महोदय ने बिना कोई परवाह किये निर्माण कराना शुरू कर दिया।मंदिर के मालिकान ने उसको बलपूर्वक ध्वस्त करा दिया जिससे चिढ़-कर ग्राउस ने पंडावर्ग एवं अन्य निवासियों को भारी आतंकित किया।तो आगरा के एक मूर्धन्य सेठ एवं महाराज मुरसान के व्यक्तिगत प्रभाव का प्रयोग कर वायसराय से भेंट कर ग्राउस का स्थानान्तरण बुलन्दशहर कराया।जिस स्थान पर चर्च का निर्माण कराने की ग्राउस की हठ थीं।उसी स्थान पर आज वहाँ बेसिक प्राइमरी पाठशाला है जो पश्चिमी स्कूल के नाम से जानी जाती है।ग्राउस की पराजय का मूक साक्षी है।

मुख्यआकर्षण-

वैसे बलदेव में मुख्य आकर्षण श्री दाऊजी का मंदिर है।किन्तु इसके अतिरिक्त क्षीर सागर तालाब जो कि क़रीब 80 गज चौड़ा 80 गज लम्बा है।जिसके चारों ओर पक्के घाट बने हुए हैं जिसमें हमेशा जल पूरित रहता है।उस जल में सदैव जैसे दूध पर मलाई होती है उसी प्रकार काई (शैवाल) छायी रहती है।दशनार्थी इस सरोवर में स्नान आचमन करते हैं,पश्चात दर्शन को जाते हैं।

पर्वोत्सव-

मन्दिर पर्वोत्सव-मन्दिर मूलत: बलभद्र सम्प्रदायी है।किन्तु पूजार्चन में ज़्यादा-तर प्रसाव पुष्टिमार्गीय है।वैसे वर्ष-भर कोई न कोई उत्सव होता ही रहता हैकिन्तु मुख्यत: वर्ष प्रतिपदा, चैत्र पूर्णिमा बलदेव जी कारासोत्सव अक्षयतृतीया, (चरणदर्शन) गंगादशहरा, देवशयनीएकादशी, समस्त श्रावणमास केझूलोत्सव, श्रीकृष्णजन्माष्टमी, बलदेवश्रीदाऊजीकाजन्मोत्सव (भाद्रपदशुक्ल 6) तथा राधाष्टमी, दशहरा, शरदपूर्णिमा, दीपमालिका, गोवर्धनपूजा, (अन्नकूट) यमद्वितीया तथा अन्य समस्त कार्तिक मास के उत्सव मार्गशीर्षपूर्णिमा (पाटोत्सव) तथा माघकी बसंतपंचमी से प्रारम्भ होकर चैत्रकृष्ण-पंचमीतकका 1-1/2 माहका होली उत्सव प्रमुख है।होली में विशेषकर फाल्गुन शुक्ल 15 को होलीपूजन सम्पूर्ण हुरंगा जो कि ब्रजमंडल के होली उत्सव का मुकुटमणि है, अत्यन्त सुरम्य एवं दर्शनीय हैं।पंचमी को होली उत्सव के बाद 1 वर्ष के लिये इस मदन-पर्व को विदायी दी जाती है।वैसे तो बलदेव में प्रतिमाह पूर्णिमा को विशेष मेला लगता है फिर भी विशेष कर चैत्रपूर्णिमा, शरदपूर्णिमा, मार्गशीर्ष पूर्णिमा एवं देवछट को भारी भीड़ होती है।इसके अतिरिक्त वर्ष-भर हजारों दर्शनार्थी प्रतिदिन आते हैं।भगवान विष्णु के अवतारों की तिथियों को विशेष स्नान भोग एवं अर्चना होती है तथा 2 बार स्नान श्रृंगार एवं विशेष भोग राग की व्यवस्था होती है।यहाँ का मुख्य प्रसाद माखन एवं मिश्री है तथा खीर का प्रसाद, जो कि नित्य भगवान आ रोते हैं,प्रसि द्ध हैं।

दर्शनकाक्रम-

यहाँ दर्शन का क्रम प्राय: गर्मी में अक्षय तृतीया से हरियाली तीज तक प्रात: 6 बजे से 12 बजे तक दोपहर 4 बजे से 5 बजे तक एवं सायं 7 बजे से 10 तक होते हैं। हरियाली तीज से प्रात: 6 से 11 एवं दोपहर 3-4 बजे तक एवं रात्रि 6-1/2 से 9 तक होतेहैं।

मन्दिर में समय-

समय पर दर्शन, एवं उत्सवों के अनुरूप यहाँ की समाज गाय की अत्यन्त प्रसिद्ध है।यहाँ की साँझीकला जिसका केन्द्र मन्दिर ही है अत्यन्त प्रसिद्ध है।बलदेव पटेबाजी के अखाड़ेबन्दी (जिसमें हथियार चलाना लाठी भाँजनाआदि) का बड़ा शौक़ है समस्त मथुरा जनपद एवं पास-पड़ौसी जिलों में भी यहाँ का `काली` का प्रदर्शन अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का है।बलदेव के मिट्टी के बर्तन बहुत प्रसिद्ध हैं।यहाँ का मुख्य प्रसाद माखन मिश्री तथा श्री ठाकुर जी को भाँग का भोग लगने से यहाँ प्रसाद रूप में भाँग पीने के शौक़ीन लोगों की भी कमी नहीं।भाँग तैयार करने के भी कितने ही सिद्धहस्त-उस्ताद हैं यहाँ की समस्त परम्पराओं का संचालन आज भी मन्दिर से होता है।यदि सामंती युग का दर्शन करना हो तो आज भी बलदेव में प्रत्यक्ष हो सकता है।आज भी मन्दि रके घंटे एवं नक्कारखाने में बजने वाली बम्ब की आवाज से नगर के समस्तव्यापार व्यवहार चलते हैं।

महामना मालवीय जी, पं०मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, मोहनदास करमचन्दगाँधी (बापू) माता कस्तूरबा, राष्ट्रपति डॉ०राजेन्द्रप्रसाद, राजवंशी देवीजी, डॉ०राधाकृष्णजी, सरदार बल्लभभाई पटेल, मोरारजी देसाई, दीनदयाल जी उपाध्याय, जैसे श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ, भारतेन्दु बाबू हरिशचन्द्रजी, हरिओमजी, निरालाजी, भारत के मुख्यन्यायाधीश जस्टिस बांग्चू ,के०एन० जी जैसे महापुरुष बलदेव दर्शनार्थ आ चुके हैं ।Source

पन्ना बलदेव जी मंदिर , पन्ना

बलदेवजी मंदिर एक रोमन वास्तुकला से प्रेरित है और इसमें एक गॉथिक अनुभव है। मंदिर में बड़े स्तंभों के साथ महा मंडप नामक एक बड़ा हॉल है और इसे एक उभरे हुए मंच पर बनाया गया है ताकि मुख्य द्वार के बाहर से भी दर्शन प्राप्त किया
जा सके।

श्री बलदेवजी की आकर्षक प्रतिमा का निर्माण काले शालिग्राम पत्थर में किया गया है। बलदेवजी मंदिर क्षेत्र की बेहतरीन संरचनाओं में से एक है और पन्ना की वास्तुकला की ऊंचाइयों का प्रतिनिधित्व करता है।

बलभद्र मंदिर, धौलरा, हरियाणा

मंदिर में स्थापित मूर्ति हजारों वर्ष पूर्व खुदाई के दौरान मिली थी। उन्हीं दिनों जगाधरी के एक सेठ बंसी लाल के यहां कोई संतान नहीं थी। तभी उनके सपने में भगवान बलभद्र जी ने दर्शन दिए और सेठ बंसीलाल को गांव धौलरा में उनका मंदिर बनवाने के लिए कहा। जिस पर सेठ गांव में पेड़ के नीचे रखी भगवान बलभद्र जी की मूर्ति वहां से उठाकर बैलगाडिय़ों द्वारा जगाधरी ले जाने लगा। जैसे ही बैलगाड़ी गांव से बाहर निकलने लगा तो बैल अंधे हो गए। जिसके बाद सेठ को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने गांव में ही मंदिर बनवाया। जिसके बाद उसके घर बेटे ने जन्म लिया।

तब से गांव में हरवर्ष सतवा तीज के दिन मेले का आयोजन होता आ रहा है। मंदिर में लोग अपनी मनोकामना के लिए आते हैं। खुदाई के दौरान मिली भगवान बलभद्र जी की मूर्ति किस धातु की बनी है, इसके बारे में आजतक पता नहीं चल पाया है। भगवान बलभद्र जी की मूर्ति पर कोई रंग नहीं ठहरता। कई बार उन्होंने मूर्ति पर रंग किया लेकिन कुछ दिनों बाद ही रंग उतर जाता है।

श्री बलभद्र मंदिर धौलरा

गांव धौलरा में भगवान बलभद्र का अक्षय तृतीया का विशाल मेला लगता है। लगने वाले इस विशाल मेले की तैयारियों को लेकर गांव के लोगों में भारी उत्साह होता है। इस मेले में दूरदराज के लोग शामिल होते है तथा भगवान बलभद्र की दिव्य प्रतिमा के दर्शन करते हैं। बताया जाता है कि दिव्य प्रतिमा उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर और गांव धौलरा के अलावा कहीं नहीं है। गांव के बलभद्र मंदिर में प्रति वर्ष अक्षय तृतीया को लगने वाले इस विशाल मेले में सभी धर्मो के लोग आकर भगवान बलभद्र की पूजा अर्चना कर मन्न्नते मांगते है

अक्षय तृतीय के अवसर पर गाँव धौलरा में को ऐतिहासिक व प्राचीन भगवान बलभद्र के मंदिर में एक दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता है। पंचायत द्वारा आयोजित इस मेले में श्रद्धालु भगवान बलभद्र के मंदिर में प्रसाद चढ़ाकर मन्नतें मांगेगे। गाँव धौलरा के धौलरा के बडे बजुरगो उन्होंने बताया कि भगवान बलभद्र के मंदिर में पुराने समय से एक दिवसीय मेले का आयोजन अक्षय तृतीय के अवसर पर होता आ रहा है। मेले में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सहित सभी धर्मो के लोग भाग लेते है। मंदिर में स्थापित प्राचीन बलभद्र की मूर्ति सैकड़ों वर्ष पहले गाँव में खुदाई के दौरान मिली थी। तब से मूर्ति को मंदिर में स्थापित कर क्षेत्र के लोग पूजा करते आ रहे है। और यहा पर मांगी मनत पुरी होती है। Source

पुरी मंदिर

सप्तपुरी में सर्वोत्तम पुरी है तथा चार धामों में सर्वोपरी पुरी धाम को माना जाता है तथा यह दुनिया भर में प्रसिद्ध है। यह मंदिर प्राचीन वास्तुकला का एक बेजोड़ तथा अस्चार्य्जनक नमूना है । यहाँ मूर्ति का स्वरुप, बाहरी ढांचा, धव्ज की बनावट में राज छुपे हैं, इन आश्चर्यजनक राज को आज के इस आधुनिक यूग में भी सुलझाया नहीं जा सका है ।

पूरी के मंदिर की प्रचलित कहानी:-

कहा जाता है कि भगवान जगत के स्वामी जगन्नाथ भगवान श्री विष्णु की इंद्रनील या कहें नीलमणि से बनी मूर्ति एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। मूर्ति की भव्यता को देखकर धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपा दिया। मान्यता है कि मालवा नरेश इंद्रद्युम्न जो कि भगवान विष्णु के कड़े भक्त थे उन्हें स्वयं श्री हरि ने सपने में दर्शन दिये और कहा कि पुरी के समुद्र तट पर तुम्हें एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा उस से मूर्ति का निर्माण कराओ। राजा जब तट पर पंहुचे तो उन्हें लकड़ी का लट्ठा मिल गया। अब उनके सामने यह प्रश्न था कि मूर्ति किनसे बनवाये। कहा जाता है कि भगवान विष्णु स्वयं श्री विश्वकर्मा के साथ एक वृद्ध मूर्तिकार के रुप में प्रकट हुए। उन्होंनें कहा कि वे एक महीने के अंदर मूर्तियों का निर्माण कर देंगें लेकिन इस काम को एक बंद कमरे में अंजाम देंगें। एक महीने तक कोई भी इसमें प्रवेश नहीं करेगा ना कोई तांक-झांक करेगा चाहे वह राजा ही क्यों न हों। महीने का आखिरी दिन था, कमरे से भी कई दिन से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी, तो कोतुहलवश राजा से रहा न गया और अंदर झांककर देखने लगे लेकिन तभी वृद्ध मूर्तिकार दरवाजा खोलकर बाहर आ गये और राजा को बताया कि मूर्तियां अभी अधूरी हैं उनके हाथ नहीं बने हैं। राजा को अपने कृत्य पर बहुत पश्चाताप हुआ और वृद्ध से माफी भी मांगी लेकिन उन्होंने कहा कि यही दैव की मर्जी है। तब उसी अवस्था में मूर्तियां स्थापित की गई। आज भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की मूर्तियां उसी अवस्था में हैं।

जगन्नाथ रथयात्रा (Jagannath Rath Yatra)

जगन्नाथ पुरी में मध्यकाल से ही भगवान्नाथ की हर वर्ष पूरे हर्षोल्लास के साथ रथ यात्रा निकाली जाती है। इसमें मंदिर के तीनों प्रमुख देवता भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और भगिनी सुभद्रा को अलग-अलग रथों में पूरी विराजमान किया जाता है। पूरी तरह से सुसज्जित इस रथयात्रा का नजारा भी भव्य दिखाई देता है। वर्तमान में रथ-यात्रा का चलन भारत के अन्य वैष्णव कृष्ण मंदिरों में भी खूब जोरों पर है। अब तो छोटे-छोटे शहरों में भी भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के आयोजन होते हैं।

जगन्नाथ मंदिर के आश्चर्य (Wonders of Jagannath Puri Temple)

4 लाख वर्ग फुट के विस्तृत क्षेत्र में फैला भगवान जगन्नाथ का यह मंदिर चहारदिवारी से घिरा है और कलिंग शैली की मंदिर स्थापत्यकला व शिल्प के प्रयोग से बना भारत के भव्य स्मारक स्थलों में शुमार है। मंदिर का मुख्य ढांचा 214 फुट ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। मूर्तियां इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। वैसे तो भारत के बहुत सारे मंदिरों के साथ आश्चर्य जुड़े हुए हैं लेकिन जगन्नाथ मंदिर से जुड़े आश्चर्य बहुत ही अद्भुत हैं। कहते हैं प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती भगवान जगन्नाथ के इस मंदिर पर जाकर कोई भी इन आश्चर्यों को देख सकता है लेकिन बहुत प्रयासों के बाद भी अभी तक इन रहस्यों से पर्दा नहीं उठा है इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

हवा के खिलाफ लहराती है ध्वजा – मंदिर के शिखर पर स्थित ध्वज हमेशा हवा की विपरीत दिशा में लहराता है। ऐसा क्यों होता है यह एक रहस्य ही बना हुआ है। एक और अद्भुत बात इस ध्वज से जुड़ी है वह यह कि इसे हर रोज बदला जाता है और बदलने वाला भी उल्टा चढ़कर ध्वजा तक पंहुचता है। मान्यता है कि यदि एक दिन ध्वजा को न बदला जाये तो मंदिर के द्वार 18 साल तक बंद हो जायेंगें।

सुदर्शन चक्र – मंदिर के शिखर पर ही अष्टधातु निर्मित सुदर्शन चक्र है। इस चक्र को नील चक्र भी कहा जाता है और इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है। इसकी खास बात यह है कि यदि किसी भी कोने से किसी भी दिशा से इस चक्र को आप देखेंगें तो ऐसा लगता है जैसे इसका मुंह आपकी तरफ है।

दुनिया की सबसे बड़ी रसोई – श्री जगन्नाथ के मंदिर में स्थित रसोई दुनिया की सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है। इसमें एक साथ 500 के करीब रसोइये और 300 के आस-पास सहयोगी भगवान के प्रसाद को तैयार करते हैं। दूसरा प्रसाद पकाने के लिये 7 बर्तनों को एक दूसरे के ऊपर रखा जाता है और प्रसाद पकने की प्रक्रिया सबसे ऊपर वाले बर्तन से शुरु होती है। मिट्टी के बर्तनों में लकड़ी पर ही प्रसाद पकाया जाता है सबसे नीचे वाले बर्तन का प्रसाद आखिर में पकता है। हैरत की बात यह भी है कि मंदिर में प्रसाद कभी भी कम नहीं पड़ता और जैसे ही मंदिर के द्वार बंद होते हैं प्रसाद भी समाप्त हो जाता है।

मंदिर के अंदर नहीं सुनती लहरों की आवाज़ – यह भी किसी रहस्य से कम आपको नहीं लगेगा कि मंदिर के सिंहद्वार से एक कदम आप अंदर रखें तो आपको समुद्र की लहरों की आवाज़ नहीं सुनाई देगी विशेषकर शाम के समय आप इस अद्भुत अनुभव को बहुत अच्छे से महसूस कर सकते हैं। लेकिन जैसे ही मंदिर से बाहर कदम निकालना आपको सपष्ट रुप से लहरों की आवाज़ सुनाई देगी।

मंदिर के ऊपर नहीं मारते परिंदे भी पर – यह कहावत तो आपने सुनी होगी कि यहां मर्जी के बिना परिंदा भी पर नहीं मार सकता लेकिन जगन्नाथ मंदिर में तो इस कहावत को सच होता देख सकते हैं परिंदों का पर मारना तो दूर हवाई जहाज तक मंदिर के ऊपर से नहीं गुजरते।

नहीं होती ऊपरी हिस्से की परछाई – यह तो विज्ञान का नियम है कि जिस पर भी रोशनी पड़ेगी उसकी छाया भले ही आकार में छोटी या बड़ी बने बनेगी जरुर। लेकिन भगवान जगन्नाथ के मंदिर का ऊपरी हिस्सा विज्ञान के इस नियम को चुनौति देता है क्योंकि दिन के किसी भी समय इसकी परछाई नजर नहीं आती।

यहां बहती है उल्टी गंगा – अक्सर समुद्री इलाकों में हवा का रुख दिन के समय समुद्र से धरती की तरफ होता है जब कि शाम को उसका रुख बदल जाता है वह धरती से समुद्र की ओर बहने लगती है लेकिन यहां भगवान जगन्नाथ की माया इसे उल्टा कर देती है और दिन में धरती से समुद्र की ओर व शाम को समुद्र से धरती की ओर हवा का बहाव होता है। स्वरचित एवं सहयोग

भगवान बलभद्र जी का - भद्रराज मंदिर

यह बलभद्र जी को समर्पित मंदिर उत्तराखंड राज्य के मसूरी शहर से करीबन 15 किलोमीटर की दूरी पर ऊंचे पहाड़ पर स्थापित है । स्थानीय भाषा के में बलभद्र जी को लोग 'भद्रराज जी' कहते हैं। अतः मंदिर को "भद्रराज मंदिर" कहा जाता है। इस मन्दिर में भगवान बलभद्र, उनके छोटे भ्राता श्री कृष्ण, बहन सुभद्रा की मूर्ति है, इस मूर्ति के चारों तरफ स्थानीय लोगों द्वार सुंदर नक्काशी की गई है जो की इस मंदिर की सुंदरता को चारचाँद लगा देती है ।

यहाँ की मान्यता है कि सतयुग में भगवान बलराम यहां साधू के भेष में आये थे। उस समय यहां लोगों के पशुओं को गंम्भीर बीमारी के कारण काफी हानी हो गई थी । यहां के लोगों दुखी मन से बलराम जी के सरण में गए और अपना दुख उन्हे सुनाया, तब भगवान बलभद्र जी ने उन्हे उपाय बताए और साथ ही साथ आशीर्वाद भी दिया, उनके आशीर्वाद से सारे पशु ठीक हो गये। पूरा गाँव दूध और मक्खन से परिपूर्ण हो गया । कुछ समय बाद जब बलराम जी उस स्थान को छोड़ कर भगवान श्री केदार नाथ की तरफ जाने की बात वहाँ के लोगों को बताई। लोगों ने उनसे यहां से न जाने की प्रार्थना की, तब बलराम जी मान गये और इसी स्थान पर रहने का निर्णय लिया। उन्होने समझाया कि वे अब यहीं मूर्ति स्वरूप रहेंगे तथा बताया कि कलयुग में उनकी पूजा "भद्राज' के नाम से मूर्ति के रूप से होगी ।

लोककथाओं के अनुसार कलयुग काल में 'नंन्दू मेहर' नाम का एक व्यक्ति उनकी स्थापना स्थापित किया था। नंन्दू मेहर के नाम पर यहाँ एक झोपड़ी बनायी है जो "सत्योंथात" के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। वर्तमान में इस मंदिर को पत्थरों द्वारा भव्य स्वरूप में बनवाया गया है, चारों तरफ पहाड़ी और प्रकृतिक दृश्य देखने योग्य है । संक्राति और 16 या 17 अगस्त को लगने वाले मेले को यहाँ एक मेला भी लगता है इस मेले को भद्राज मेंले के नाम से जाना जाता है। इसे देखने और भगवान बलभद्र जी को दूध से अभिषेख करने के लिये लोग दूर दराज के क्षेत्रों और देश-विदेश से भी आतें है। इस सिद्धपीठ में साफ मन से आने वाले व्यक्ति को भगवान भद्राज अवश्य ही वर देते है। भगवान भद्राज मंदिर में लगने वाले भोगों में दूध, दही, मक्खन, आटे का रोट आदि प्रमुख है। इस मंदिर में आने वाले सभी भक्तों को स्वच्छ तन और मन से आना चाहिए। मंदिर में सभी प्रकार के मादक पदार्थ व मांस, मछली पूर्ण तरह से वर्जित है। जो कोई भी इन पदार्थों के साथ यहां जाता है वह भगवान उसे तुरन्तु दण्ड दे देते है।

भद्राज मंदिर कैसे पंहुचे - भद्राज मंदिर पहुचंने के लिए मसूरी से दूधली (10-15 किलोमीटर की दूरी) तय करनी पड़ती है, सहसपुर-लांधा मदोगी तक (5-7 किलोमीटर)।

श्री बलभद्र जी का शिलालेख

धनबाद के गोपालपुर में भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई भगवान श्री बलभद्र जी का शिलालेख मिला, 800 साल पुराना होने का दावा

धनबाद के एग्यारकुंड प्रखंड के गोपालपुर बस्ती बस्ती के आसपास मध्यकालीन भारतीय इतिहास के समय वैष्णव धर्म मानने वालों की जानकारी का पता पुरातत्व शोध में चला है। गोपालपुरा हरि मंदिर के नीचे जो पत्थर लगा हुआ है वह सदियों पुराना है। भगवान बलराम का वर्षों पुराना शिलालेख मिला है

जासं,, मैथन/मुगमा। एगयारकुंड प्रखंड के मुगमा स्थित गोपालपुर बस्ती में भगवान बलराम का शिलालेख मिला है। यह शिलालेख लगभग 800 साल पुराना होने की संभावना है। तलाश संस्था में पुरातत्व विभाग के रिसर्च डायरेक्टर सह पुणे डेक्कन कालेज रिसर्च एसोसिएट शुभम रजक इसकी खोज की है। उन्होंने बताया कि गोपालपुर बस्ती बस्ती के आसपास मध्यकालीन भारतीय इतिहास के समय वैष्णव धर्म मानने वालों की जानकारी का पता पुरातत्व शोध में चला है। गोपालपुरा हरि मंदिर के नीचे जो पत्थर लगा हुआ है वह सदियों पुराना है। बस्ती के उत्तर दिशा के खेतों में भगवान बलराम का वर्षों पुराना शिलालेख मिला है जिसकी ऊंचाई 1.30 मीटर और चौड़ाई 1 फीट 6 इंच है। यह शिलालेख करीब 800 वर्ष पुरानी होने की संभावना।

उन्होंने बताया कि बस्ती के इर्द गिर्द और भी पुराना शिलालेख मिलने की उम्मीद है। भगवान विष्णु के शिलालेख के विषय में भी पता चला है जिस पर शोध कर रहे हैं। वर्तमान में बलराम का जो शिलालेख मिला है वह हवा और पानी के कारण खराब हो रहा है। यह शिलालेख सेंड स्टोन से बना हुआ है। शिलालेख पर बने चित्र कई चीजों को दर्शा रही है। शिलालेख का शोध करने पर पता चला कि इसका ऊपरी हिस्सा चैत्य आर्च है। उसके नीचे शेषनाग की आकृति बनी हुई है। साथ ही उसमें जटा, सर्प व हल की आकृति बनी हुई है। इतनी पुराने शिलालेख की जानकारी होने से बस्ती के लोगों में खुशी का माहौल व्याप्त है।

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शिवलिंग की स्थापना

भगवान श्री बलभद्र ने की थी शिवलिंग की स्थापना !

पूरे भारत वर्ष में केवल दो शिवलिंग ऐसे हैं, जिनकी स्थापना स्वयं अवतारी पुरुषों ने की थी। भगवान श्री राम ने पहले शिवलिंग की स्थापना की थी जो रामेश्वरम में है। दूसरे शिवलिंग की स्थापना सेषनाग के अवतार और भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई श्री बलभद्र भगवान ने की थी। यह शिवलिंग गंगा किनारे रामघाट पर है, जिसकी स्थापना श्री बलराम ने की थी।

श्री मनकामेश्वर बन्खंडेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।यह जिला बुलंदशहर की डिबाई तहसील में रामघाट बांग, उत्तर प्रदेश में है | पेड़ों की ओट में छिपा हुआ है यह मंदिर तथा ऊंचाई पर है। रामघाट से मंदिर तक जाने का कोई सुगम रास्ता अभी बना नहीं है।

कहा जाता है कि बलराम कोलासुर राक्षस का वध किया था। उन्होंने अपने शस्त्र हल को जिस स्थान पर धोया था, उसका नाम हरदुआगंज है। फिर उन्होंने गंगा किनारे रामघाट पर आकर स्नान किया और शिवलिंग की स्थापना की थी। पहले रामघाट का नाम बलराम घाट था। बाद में यह रामघाट के नाम से प्रसिद्ध हो गया। बलराम जी द्वारा स्थापित मंदिर को “श्री मनकामेश्वर बन्खंडेश्वर महादेव” के नाम से जाना जाता है। रामघाट, जहां पर लोग स्नान करते हैं, यह मंदिर दिखाई नहीं देता है। पेड़ों की ओट में छिपा हुआ है। मंदिर ऊंचाई पर है।

रामघाट का संबंध राम से नहीं है अपितु बलराम से है।

विवाह प्रसंग

आइये हम भगवन बलभद्र श्री कृष्ण के बड़े भ्राता बलदाऊ जे के विवाह सम्बंधित कहानी को जानते हैं । यह बात सतयुग काल की है, पौराणिक कथाओं के अनुसार पृथ्वी सम्राट रैवतक नामक एक महाराजा थे, उनकी पुत्री का नाम रेवती था । विवाह योग्य हो जाने पर राजा सुयोग्य वर की तलाश में पुत्री को लेकर ब्रह्मलोक आये । महाराज रैवतक ने ब्रह्मलोक स्वामी भगवान ब्रह्मजी जी को अपनी पुत्री हेतु सुयोग्य वर ना मिलने की अपनी परेशानी को रखा । उनकी बातों को सुन ब्रह्मजी मुस्कुराने लगें और महाराज रैवतक को पृथ्वी पर वापिस लौट आने के लिए कहा । उन्हें ब्रह्मजी जी ने बताया की आप की पुत्री का विवाह विष्णु अवतार श्री कृष्ण के बड़े भाई श्री बलराम जी से होगा और वे आपकी पुत्री के लिए सुयोग्य होंगें । इस तरह महाराज अति प्रसन्नता पूर्वक भूलोक लौट आये।

पृथ्वी पर लौट कर महाराज दुखी और आश्चर्यचकित हो गए, उन्होंने देखा कि पृथ्वी पर अभी द्वापर युग चल रहा है और समय काल चक्र अनुसार यहाँ के मनुष्य बनस्पति, जीवजन्तु सभी का आकार छोटा हो गया है । वे सोंच-सोंच कर घबराने लगें की उनकी बेटी जो की 21 हाँथ लम्बी थी का विवाह कैसे होगा ? (यह माना जाता है कि द्वापरयुग में मनुष्य का शरीर 7 हाँथ लाम्बा, त्रेतायुग में 14 हाथ, सतयुग में मानव की ऊंचाई 21 हाथ होता था )

कोई उपाय ना देख कर सम्राट रैवतक भगवान श्री कृष्ण के पास अनुनय विनय ले कर गए । उन्होंने कृष्ण को ब्रह्मलोक में भगवन ब्रह्मजी जी से हुई सभी बातों को बताया । उनकी बातों को सुन कर श्री कृष्ण और बलराम जी दोनों मुस्कराने लगे और उन्हें समझाया की जब तक आप ब्रह्मलोक से लौटे हैं तब तक पृथ्वी पर सतयुग व त्रेता नामक दो युग गुजर गए। इस समय पृथ्वी पर द्वापर युग चल रहा है। इसी लिए यहाँ सभी जीवों के साथ मनुष्यों का आकर छोटा हो गया है । रेतक महराज को रेवती की लबाई को ले कर अब और चिंता सताने लगी और वे दुखी मन से बोले बोले अब बेटी का विवाह कैसे संभव होगा ? बलराम जी उनकी बाते सुनते ही अपना हल उठाया और रेवती जी अपने पराक्रम से उसके निचे दबा दिया । उनके इस उपाय से रवती जी की लम्बाई छोटी हो गई ।

बलभद्रा जी के इस उपाय से राजा रैवतक प्रसन्न हो गए, और इस तरह बलभद्र जी एवं माता रेवती जी का विवाह सम्पन्न हुआ ।

मान्यता :

विवाह तिथि : वैशाख शुक्ल 3 (या अक्षय तृतीया के दिन) बलभद्र जी एवं माता रेवती जी की विवाह हुई थी की मान्यता है ।

राक्षस प्रलम्बासुर का वध

यह बात श्री बलभद्र जी एवं श्री कृष्ण जी के बाल्य समय की है । यमुना के किनारे भंडारी बन में श्री कृष्ण बलराम और उनके साथी ग्वाले आपस में खेल खेल रहे थे यह खेल पिठईयान के रूप में जाना जाता है जिसमें हारने वाला बालक अपने पीठ पर जीतने वाले बालक को चढ़ा कर एक निश्चित दूरी पर ले जाता है। उनके खेल के बीच एक राक्षस जिसका नाम प्रलम्बापुर था, ग्वाला के भेष में आ जाता है और सजा के रूप में बलभद्र जी को अपने पीठ पर बैठा कर चल देता है। सुंदर और गौर वर्ण के बलराम जी उसके पीठ की सवारी आनंद पूर्वक करते रहते हैं, पर वह बलराम जी अपहरण कर मथुरा ले जाना चाहता है! खेल के नियम अनुसार यमुना के किनारे नशिचित दूरी पर वह रुकता नहीं है और भागते हुए अपने मूल राक्षसी रूप में आ जाता है। उसका रूप काले बादलों की तरह भयानक है ! उस रूप को देखकर बलराम जी को बहुत क्रोध आता है और वे अपनी बँधी हुई कठोर मुष्टिका से उसके मस्तक पर बहुत ही बेग से प्रहार करते हैं यह मुक्का प्रलम्बापुर के सर पर एक वज्र के प्रहार की तरह पड़ता है और उसका मस्तक फट के टुकड़ों में बट जाता है उसकी मृत्यु हो जाती है। गर्ग संहिता अनुसार उस राक्षस प्रलम्बापुर के शरीर से एक विशाल ज्योति निकलती है और बलरामजी में विलीन हो जाती है, इस आलौकिक दृश्य को देखकर देवता प्रशन्न हो जाते हैं और बलराम जी के ऊपर नंदनवन के फूलों की वर्षा करते हैं। बाल्यकाल में इस प्रलम्ब दैत्य के वध करने के कारन ही बलराम जी को उनके पराक्रम के अनुसार बलदेव नाम प्राप्‍त हुआ था।

दैत्‍य प्रलम्‍ब पूर्वजन्‍म में कौन था ? और बलदेवजी के हाथ से उसकी मुक्ति क्‍यों हुई ?

यह कहानी इस प्रकार है : यक्षराज कुबेर ने भगवान शिव की पूजा के लिये फुलवारी लगाई थी पर कोई न कोई उनका फूल तोड़ लेता था, कुपित हो कुबेर ने शापित किया कि जो उनका फूल तोड़ेगा वह उनके शाप से भूतल पर असुर हो जाएगा ! राक्षस प्रलम्बासुर जो की पूर्व जन्म में गंधर्व विजय था अनजाने फूल तोड़ लेता है और शापित हो भूतल पर असुर बन जाता है ! जब कुबेर जी को शापित विजय के विष्णु भक्त और महात्मा होने की जानकारी मिलती है तो वे उसे माफ कर देतें हैं और वरदान देते हुए कहतें हैं कि “द्वापर के अन्‍त में भाण्‍डीर-वन में यमुना के तटपर बलदेव जी के हाथ से तुम्‍हारी मुक्ति होगी”

यही भगवान बलराम द्वारा राक्षस ‘प्रलम्बासुर का वध’ और उद्धार की कहानी है !

धेनुकासुर वध

धेनुकासुर अथवा धेनुका महाभारतकालीन एक असुर था, जिसका वध बलराम ने अपनी बाल अवस्था में किया था। जब कृष्ण तथा बलराम अपने सखाओं के साथ ताड़ के वन में फलों को खाने गये, तब असुर धेनुकासुर ने गधे के रूप में उन पर हमला किया। बलराम ने उसके पैर पकड़कर और घुमाकर पेड़ पर पटक दिया, जिससे प्राण निकल गये।

कथा वृंदावन में रहते हुए बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड-अवस्था में अर्थात छठे वर्ष में प्रवेश कर लिया था। बलराम और श्रीकृष्ण के सखाओं में एक प्रधान गोप बालक थे, जिनका नाम था- श्रीदामा। एक दिन उन्होंने बड़े प्रेम से बलराम और श्रीकृष्ण से कहा- “हम लोगों को सर्वदा सुख पहुँचाने वाले बलरामजी। आपके बाहुबल की तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण! दुष्टों को नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वभाव ही है। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा भारी वन है। उसमें बहुत सारे ताड़ के वृक्ष हैं। वे सदा फलों से लदे रहते हैं। वहाँ धेनुक नाम का दुष्ट दैत्य भी रहता है। उसने उन फलों को खाने पर रोक लगा रखी है। वह दैत्य गधे के रूप में रहता है। है श्रीकृष्ण! हमें उन फलों को खाने की बड़ी इच्छा है।” अपने सखा ग्वाल बालों की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों हंसे और फिर उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनके साथ ताड़ वन के लिए चल पड़े।

वन में पहुँचकर बलराम ने अपनी बांहों से उन ताड़ के पेड़ों को पकड़ लिया और बड़े जोर से हिलाकर बहुत से फल नीचे गिरा दिए। जब गधे के रूप में रहने वाले दैत्य धेनुकासुर ने फलों के गिरने का शब्द सुना, तब वह बलराम की ओर दौड़ा। बलराम ने अपने एक ही हाथ से उसके दोनों पैर पकड़ लिए और उसे आकाश में घुमाकर एक ताड़ के पेड़ पर दे मारा। घुमाते समय ही उस गधे के प्राण पखेरू उड़ गए। उसकी इस गति को देखकर उसके भाई-बंधु अनेकों गदहे वहाँ पहुँचे। बलराम तथा कृष्ण ने सभी को मार डाला। जिस प्रकार बलराम ने धेनुकासुर को मारा, ग्वालबाल बलराम के बल की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। धेनुकासुर वह है, जो भक्तों को भक्ति के वन में भी आनंद के मीठे फल नहीं खाने देता। बलराम बल और शौर्य के प्रतीक हैं। जब कृष्ण हृदय में हों तो बलराम के बिना अधूरे हैं। बलराम ही भक्ति के आनंद को बढ़ाने वाले हैं। ग्वालबाल अब मीठे फल भी खा रहे हैं।

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बलराम जी और द्विविद का युद्ध

यह एक पौराणिक कथा है। इस कथा में भगवान बलराम जी और वानरराज द्विविद का युद्ध का वर्णन है। इसका वर्णन विष्णुपुराण के 5वें अंश के 36वें अध्याय में किया गया हैँ।

जिसके अनुसार:

द्विविद नामक एक महाबलशाली वानर हुआ जो कि दैत्यराज नरकासुर का परम मित्र था। दोस्तों भगवान श्री कृष्णा ने देवराज इंद्र के कहने से नरकासुर का वध तो कर ही दिया था। जिसके कारण वह वानर सभी देवी देवताओं को अपना दुश्मन मान बैठा और पृथ्वीलोक पर उत्पत्ति मचाने लगा और तब से वह बलशाली वानर अज्ञानमोहित होकर यज्ञों का विध्वंस करने लगा और साधुमर्यादा को मिटाने तथा सभी वन्य जीवों को मारने लगा ।

वह जंगलों तथा गांव के गावों को जलाने लगा । कभी पर्वत गांव पर गिरा देता तो कभी पहाड़ की चट्टानों को उखाड़कर समुद्र डाल देता तो कभी वह वानर समुद्र में घुसकर सारे समुद्र को ही क्षुभित कर देता और वानर से क्षुभित होकर समुद्र अपनी ऊँची ऊँची लहरों से उठकर पुरे गांव को डुबो देता तो कभी विकराल रूप धारण करके ग्रामीणों की फसलों को कुचल देता। उस वानर की वजह से सारे जीव और मनुष्य परेशान हो गये थे।

उसी समय यदुश्रेष्ठ बलभद्र जी अपनी पत्नी रेवती और अन्य सुंदर स्त्रियों के साथ मंदरांचल पर्वत पर घूमने के उद्देश्य से पहुँचे और यदुश्रेष्ठ बलभद्र जी कुबेर के सामान रैवतक पर विचरण कर रहे थे कि तभी अचानक घूमते घूमते द्विविद वानर वहां आ पंहुचा और बलराम जी का हल और मूसल लेकर बलराम जी कि नक़ल करने लगा और स्त्रियों को देखकर दुरात्मा वानर हँसने लगा तथा मदिरा के सारे मटके भी फोड़ डालें। यह देखकर बलराम जी उसे अज्ञानी वानर समझकर धमकाया और वहाँ से दूर जाने के लिए कहा ।

लेकिन ढ़ीठ वानर किलकारी मारकर हँसने लगा । बलदेव जी के बार बार कहने पर भी ज़ब वानर वहाँ से नहीं गया तो मुस्कुराते हुए बलराम जी ने अपना मूसल उठा लिया और तभी वानर ने एक भरी चट्टान उठायी और बलराम जी के ऊपर फेंक दी। लेकिन बलराम जी ने मूसल से चट्टान के हजारों टुकड़े कर दिए। इसके बाद दोनों में युद्ध छिड़ गया दोनों योद्धा एक दूसरे पर अपने पैतरे आज़माने लगे ।

बलराम जी ने उस वानर पर अपने मूसल से प्रहार किया लेकिन वानर तो वानर ही हैँ वह गुलाटी मारकर बचा गया और उस वानर ने बलराम जो को जोर का एक घूँसा मारा। जिससे क्रोधित बलराम जी ने पलटवार करते हुए द्विविद वानर के सिर पर प्रहार किया। बलराम जी प्रहार वह वानर सहन न कर सका और खून कि उल्टियाँ करता हुआ निर्जीव होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा. लेकिन वह विशाल वानर ज़ब गिरा तो उस पर्वत के शिखर के सैकड़ों टुकड़े हो गये । वानर को मरा देखकर सभी देवी देवता बलराम जी पर फूलों कि वर्षा करने लगे।

संकलित: पुरानीक कथा _ राहूल गुरु

संकलित: पुरानीक कथा _ राहूल गुरु

महाभारत युद्ध और बलराम जी

महाभारत युद्ध को धर्म युद्ध कहा जाता है। इस युद्ध में केवल दो पक्ष था एक कौरव दूसरा पांडव । भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई श्री बलभद्र एक मात्रा ऐसे नायक थे जो हमेशा युद्ध के खिलाफ रहे। निष्पक्ष रहते हुए बलभद्र जी ने द्युत-सभा के लिए धर्मराज युधिष्ठिर को भी दुर्योधन के बराबर ही जिम्मेदार ठहराया था। उन्होंने चाहा था कि महाभारत युद्ध ना हो। उन्होंने महाभारत के युद्ध में हिस्सा नहीं लिया था।

बलराम ही एकमात्र ऐसे चरित्र हैं जो हमेशा अपना निष्पक्ष रूप दिखाते हैं। दुर्योधन और भीम दोनों ही को गदा की शिक्षा बलराम जी ने दी थी। शिष्य होने के नाते वे दोनों को बराबर और अपना मानते थे, और उनके लिए पांडव और कौरव दोनों ही उनके अपने थे। महाभारत युद्ध निश्चित देख कर वे दुःखी हो कर वहां की भूमि छोड़ कर चले गए थे।

दुर्योधन और भीम में जब गदा युद्ध आरम्भ होता है तब वे लौटते हैं और इस गदा युद्ध के निर्णायक बनते हैं। इस गदा युद्धमें हो रहे अधर्म होते देख बलराम जी नाराज होकर चले जाते हैं। उसी वक्त वे कहते हैं कि भीम जैसे शिष्य के लिए हमेशा शर्मिंदा रहेंगे साथ ही यह भी कहते हैं कि मुझे सारी जिंदगी इस बात पर गर्व रहेगा कि दुर्योधन मेरा शिष्य था…।

श्री बलराम जी महाभारत का युद्ध खत्म होने के बाद किसी भी उत्सव में हिस्सा नहीं लेते हैं। एकमात्र बलराम ही नायकत्व के असल गुणों से भरे चरित्र के रूप में दिखते हैं।

नागा वेश

भुवनेश्वर, शेषनाथ राय। महाप्रभु श्री जगन्नाथ जी का नागार्जुन वेश अत्यंत ही दुर्लभ होता है। यह एक सामयिक एवं सामरिक वेश होता है। इसमें श्रीजगन्नाथ जी एवं भाई बलभद्र जी को नागा वेश में सजाया जाता है। कार्तिक महीने के पंचुक की मल तिथि में ही महाप्रभु का नागार्जुन वेश होता है। आम तौर पर पंचुक पांच दिन का होता है, मगर जिस साल पंचुक 6 दिन का होता है, उसी साल महाप्रभु का नागार्जुन वेश होता है। इस साल भी पंचुक 6 दिन का है ऐसे में महाप्रभु का यह दुर्लभ वेश हो रहा है।

जानकारी के मुताबिक 25 साल बाद 21वीं शताब्दी में यह पहला नागार्जुन वेश है। ऐसे में इस वेश को लेकर श्रद्धालुओं में भी उत्सुकता का माहौल है। हालांकि इस साल कोरोना प्रतिबंध के कारण प्रभु के इस दुर्लभ वेश का भक्त दर्शन नहीं कर पाएंगे।

नागार्जुन वेश के इतिहास पर यदि नजर डालें तो यह वेश काफी पुराना होने का अनुमान किया जा रहा है। इससे पहले 1993 एवं 1994 में महाप्रभु का नागार्जुन वेश हुआ था। 25 साल बाद 2020 में पुन: यह वेश हो रहा है। नागार्जुन वेश में महाप्रभु श्री जगन्नाथ एवं श्रीविग्रहों के लिए विशेष सामग्री का प्रयोग किया जाता है। विशेष रूप से अलंकार के साथ विभिन्न अस्त्र-शस्त्र से सज्जित किया जाता है।

श्रीभुज, श्रीपयर, नाकूआसी, कान का कुंडल, ओलमाल, बाघनखी माली, हरिड़ा माली, पद्ममाली, घागड़ा माली से सजाया जाता है। महाप्रभु जगन्नाथ एवं बलभद्र के मुंह में मूंछ एवं दाढ़ी लगाई जाती हैष बाघ की छाल वाला समान वस्त्रों दोना भाई परिधान करते हैं।

उसी तरह से इनके लिए सोल, कना, जरी तथा बेत से अस्त्र बनाया जाता है, जिसका परिधान करते हैं दोनों ठाकुर। भीतर सेवायत भीतरछ, तलुच्छ महापात्र, पुष्पालक इस वेश को तैयार करते हैं। सिंहारी, खुण्टिया तथा मेकाप सेवक वेश करते हैं चक्रकोट खुंटिया वेश की सामग्री मुहैया कराते हैं। नागार्जुन वेश को श्रीक्षेत्र लोक संस्कृति की प्रतिछवि माना जाता है। Source

वंशावली
आरती

ॐ जय बलभद्र हरे
प्रभु जय बलभद्र हरे
अपने कुल की रक्षा/२
तू प्रभु नित्य करे… ॐ जय बलभद्र हरे ।।

जो सेवे सुख पावे
प्रति पल गुण गावे
हो स्वामी प्रति पल गुण गावे
सुख-सम्पत्ति घर आवे/२
निर्मल तन पावे… ॐ जय बलभद्र हरे ॥१॥

तुम हलधर हो स्वामी
सब सुख के दाता
हो स्वामी सब सुख के दाता
अन्न तुम्हारे हल से/२
हर प्राणी पाता… ॐ जय बलभद्र हरे ॥२॥

गंगाजल सा पावन
है तेरी काया
हो स्वामी है तेरी काया
जगत् नाथ हो देवा/२
जग तेरी माया… ॐ जय बलभद्र हरे ॥३॥

जल थल के कण-कण में
तुम्हें पाऊँ देवा
हो स्वामी तुम्हें पाऊँ देवा
ऐसा वर दो स्वामी/२
नित्य करूँ सेवा… ॐ जय बलभद्र हरे ॥४॥

भक्त जनों के रक्षक
दिव्य स्वरूप धरे
हो स्वामी दिव्य स्वरूप धरे
गौरवर्ण नीलाम्बर/२
सबके मन मोहे… ॐ जय बलभद्र हरे ॥५॥

विषय विकार मिटाओ
पाप हरो देवा
हो स्वामी पाप हरो देवा
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ/२
करूँ मन से सेवा… ॐ जय बलभद्र हरे ॥६॥

वन्दन हे बलदेवा
जग के सुखदाता
हो स्वामी जग के सुखदाता
चरणों में अर्पित पुष्प को
स्वीकारो दाता… ॐ जय बलभद्र हरे ॥७॥

सभी भक्त मिल करें स्तुति
जगदाता मेरे
हो स्वामी जगदाता मेरे
मुरलीधर के भईया/२
सबके मन मोहे… ॐ जय बलभद्र हरे ॥८॥
जो बलभद्र जी की आरती
जो कोई जन गावे
हो स्वामी प्रेम सहित गावे तन मन सुख सम्पत्ति
मनवांछित फल पावे…

ॐ जय बलभद्र हरे ॥९॥ ॐ जय बलभद्र हरे,
प्रभु जय बलभद्र हरे
अपने कुल की रक्षा/२
तू प्रभु नित्य करे…ॐ जय बलभद्र हरे ।।


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जय
बलभद्र हरे

मनोज कुमार शाह
तिनसुकिया, असम